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26 Dec 2016 · 2 min read

लकीर

इन गलियों में रमन ने पहली बार कदम रखा था। मेकअप लगाये झरोखों से झांकते चहरे जो हाव भाव से उसे अपनी ओर खींचने का प्रयास कर रहे थे। संभावित ग्राहक को देख कर उसके पीछे भागते दलाल। किन्तु उसका दोस्त जो इन गलियों से वाकिफ था इन सब को नज़र अंदाज़ कर आगे बढ़ता जा रहा था। रमन भी उसके पीछे पीछे चल रहा था। सीढियां चढ़ कर दोनों एक कमरे में पहुंचे। उसका दोस्त किसी मैडम जो एक स्थूलकाय महिला थी से बात करने लगा। उस महिला ने उन्हें उसके पीछे पीछे चलने का इशारा किया। रमन को एक कमरे में बिठा कर वो मैडम और उसका दोस्त चले गए।
दस माह पूर्व पारिवारिक जिम्मेदारियां उसे शहर ले आयीं। पत्नी दो बच्चों और एक बूढी माँ का गाँव में रह कर पालन कर पाना कठिन था। अतः वह शहर चला आया। रमन एक मार्बल फैक्ट्री में काम करता था। दिन भर कड़ी मेहनत के बाद देर शाम जब वह लौटता तो घर के नाम पर एक छोटी सी कोठरी में अकेले रहना बहुत खलता था।। रोज़ की यही दिनचर्या थी। जीवन बहुत उबाऊ हो गया था। फिर जिस्म ने भी अपनी ज़रूरतें बताना शुरू कर दिया था। बहुत दिन हो भी गए थे। इसी कारण अपने दोस्त के कहने पर वह यहाँ आने को तैयार हो गया।
वह कमरे में बैठा इंतज़ार कर रहा था। कुछ ही समय में बीस बाईस वर्ष की एक लड़की कमरे में आई और उसके सामने पड़े बिस्तर पर बैठ गयी। बिना उससे कुछ कहे वह बड़ी बेशर्मी के साथ अपने शरीर को उघाड़ रही थी। रमन के मन में भी वासना जोर मार रही थी। उसके हाथ उस लड़की की तरफ बढे। किन्तु तभी जाने क्या हुआ। जैसे उसकी आँखों से कोई पर्दा उठा हो। उस परदे के पीछे से उसे अपनी पत्नी का चेहरा झांकता दिखाई पड़ा। जिसने भीगी आँखों से विदा देते हुए कहा था ” अपना ख़याल रखना। शरीर को ज्यादा कष्ट न देना। हम थोड़े में भी गुज़र कर लेंगे।”
रमन जैसे किसी बेहोशी से जगा हो और उसने खुद को किसी अवांछित जगह पर पाया हो। वह उठा और तेज़ी से भागता हुआ गली के बाहर आ गया। शरीर की भूख उसे यहाँ खीच लायी थी किन्तु सही समय पर उसके कदम लकीर पर थम गए।

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