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9 Nov 2016 · 1 min read

अफसोस

अफसोस

देख
आज के हालात
सिर पकड बैठ
जाता हूँ
सब ओर
लाचार बेचारी
दीनता हीनता है
गरीबी और बेबसी है
फिर अफसोस
क्यों ना हो
बचपन जब
हो भूखा प्यासा
ना हो खाने को दाना
क्यों ना हो अफसोस

कल की बात
शहर का मुख्य
चौराहा
वाहनों की लम्बी
लम्बी सी कतारों
के बीच
जीर्णशीर्ण बसन
छिद्रों से भरी
में माँगती बस
गोद में लिए बच्चे
की खातिर
दस बीस रूपये
यह मेरे भारत
की तस्वीर
बस अफसोस

वो पालिटिक्शीयन
खीचतें खाका देश का
उस महिला का कोई
अस्तित्व नही
इस मेप मे
काश
उसकी दीनता गरीबी
ख्वाहिश अभिलाषा
स्तर के लिए
काश
निर्धारित कोई
स्थान होता
बस देख अफसोस
होता है

अफसोस होता है
देखकर वह वृद्धा
जो सड़क के फुटपाथ
साइड से सूखे भूसे
टाट पट्टी का
जो उसकी अवस्था
की तरह जीर्णशीर्ण
तार तार है
बस बना आशियाना
भावी जीवन का
दिनों को काटती है
बस देख अफसोस
होता है अफसोस
क्योंकि
मर्द कहलाने वाला
जन्तु
जो उसकी कोख से
पैदा हो बडा हुआ
नही रख सकता

पर क्यूँ
शायद प्यार बँट
गया पत्नी मे
बच्चों में
आफिस मे दोस्तों में
कितने ही टुकड़ों में
बाँट डाला उसने
माँ का वो प्यार
मिला जो जन्म से
जवान होने तक
देख होता बस अफसोस

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