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7 Nov 2016 · 1 min read

ज़ख़्म आहिस्ता दुखाकर चल दिये

ज़ख़्म आहिस्ता दुखाकर चल दिये
आप जो ये मुस्कुराकर चल दिये
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ग़ज़ल,
क़ाफ़िया-आकर, रदीफ़-चल दिये
वज़्न- 2122 2122 212
(फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन)
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ज़ख़्म आहिस्ता दुखाकर चल दिये
आप जो ये मुस्कुराकर चल दिये
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लीडरान-ए-क़ौम ने आवाज़ दी
और हम परचम उठाकर चल दिये
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आपसे उम्मीदबर थी शाइरी
आप आये गीत गाकर चल दिये
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हम समझते थे जिन्हें अपना वही
आग़ बस्ती में लगाकर चल दिये
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अश्क उतरेंगे बगावत पर अभी
आप तो समझा बुझाकर चल दिये
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सरहदों में बँट गये हैं हमवतन
लोग तो दीवार उठाकर चल दिये
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नींद आँखों से हुई नाराज़ क्या
ख़्वाब सारे तिलमिलाकर चल दिये
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कर न दें बदनाम गुलशन को कहीं
फूल ख़ारों से निभाकर चल दिये
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राकेश दुबे “गुलशन”
07/11/2016
बरेली

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