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4 Nov 2016 · 1 min read

जिंदगी

जिंदगी क्या है ?
समझ न पाई कभी
लगती है कभी
अबूझ पहूली सी
कभी प्यारी सहेली सी
कभी खुशनुमा धूप सी
कभी बदली ग़मों की
फिर अचानक ,
छँट जाना बदली का
मुस्कुराना हल्की सी धूप का
क्या यही है जिंदगी ?
लोगों से भरी भीड़ में
जब ढूँढती हूँ उसे तो
हर कोई नजर आता है
मुखौटे चढ़ाए
एक नहीं दो नहीं
न जाने कितने
बड़ा मुश्किल है
समझ पाना
और कभी जब
परत दर परत
उखड़ते हैं
ये मुखौटे
तो आवाक सा
रह जाना पडता है
फिर भी जिए
जा रहे हैं
दिन ब दिन
शायद , यही है
जिंदगी……

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