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28 Oct 2016 · 2 min read

मैं उजाला और दीपावली

बह हमसे बोले हँसकर कि आज है दीवाली

उदास क्यों है दीखता क्यों बजा रहा नहीं ताली

मैं कैसें उनसे बोलूँ कि जेब मेरी ख़ाली

जब हाथ भी बंधें हो कैसें बजाऊँ ताली

बह बोले मुस्कराके धन से क्यों न खेलते तुम

देखो तो मेरी ओर दुखों को क्यों झेलते तुम

इन्सान कर्म पूजा सब को धन से ही तोलते हम

जिसके ना पास दौलत उससे न बोलते हम

मैंने जो देखा उनको खड़ें बह मुस्करा रहे थे

दीवाली के दिन तो बह दौलत लुटा रहे थे

मैनें कहा ,सच्चाई मेरी पूजा इंसानियत से नाता

तुम जो कुछ भी कह रहे हो ,नहीं है मुझको भाता

वह बोले हमसे हसकर ,कहता हूँ बह तुम सुन लो

दुनियां में मिलता सब कुछ खुशियों से दामन भर लो

बातों में है क्या रक्खा मौके पे बात बदल लो

पैसों कि खातिर दुनियां में सब से तुम सौदा कर लो

वह बोले हमसे हंसकर ,हकीकत भी तो यही है

इंसानों क़ी है दुनिया पर इंसानियत नहीं है

तुमको लगेगा ऐसा कि सब आपस में मिले हैं

पर ये न दिख सकेगा दिल में शिक्बे और गिले हैं

मैनें जो उनसे कहा क्या ,क्या कह जा रहे हैं

जो कुछ भी तुमने बोला ना हम समझ पा रहे हैं

मेरी नजर से देखो दुनियाँ में प्यार ही मिलेगा

दौलत का नशा झूठा पल भर में ये छटेगा

दौलत है आनी जानी ये तो तो सब ही जानतें हैं

ये प्यार भरी दुनियां बस हम प्यार मानतें है

प्रेम के दीपक, तुम जब हर दिल में जलाओगे

सुख शांति समृधि की सच्ची दौलत तुम पाओगे

वह बात सुन कर बोले ,यहाँ हर रोज है दीवाली

इन्सान की इस दुनियां का बस इश्वर है माली

बह मुस्करा के बोले अब हम तो समझ गएँ हैं

प्रेम के दीपक भी मेरे दिल में जल गए हैं

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दिवाली का पर्व है फिर अँधेरे में हम क्यों रहें
चलो हम अपने अहम् को जलाकर रौशनी कर लें

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दिवाली का पर्व है अँधेरा अब नहीं भाता मुझे
आज फिर मैंने तेरी याद के दीपक जला लिए

दीपाबली शुभ हो

मैं उजाला और दीपावली

मदन मोहन सक्सेना

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