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2 Aug 2016 · 1 min read

मुहब्बत का मेरे भी वास्ते पैग़ाम आया है

मिला चौनो क़रारो बेश्तर आराम आया है
सुना है जी चुराने में मेरा भी नाम आया है

न कोई राबिता था तब न कोई राबिता है अब
मगर फिर भी दीवाने याद तू हर गाम आया है

नहीं था इश्क़ तुझको गर तो फिर मेरे ही कूचे में
भला यह तो बता दे क्यूं तू सुब्हो शाम आया है

तू क्या जाने के मुझको भी ग़ुरूर अपना जलाना था
तेरा आतिश उगलना आज मेरे काम आया है

नहीं बेचैन करता अब ख़याले ज़िश्तरूई भी
मुहब्बत का मेरे भी वास्ते पैग़ाम आया है

अरे ग़ाफ़िल! भले जैसा भी हो इक बार मिल तो ले
के तेरे आस्ताँ पर फिर दिले नाकाम आया है

(ख़याले ज़िश्तरूई=बदसूरती का विचार)

-‘ग़ाफ़िल’

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