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26 Jul 2016 · 1 min read

मकानों के दरम्यान

मकानों के दरम्यान कोई घर नहीं मिला
शहर में तेरे प्यार का मंज़र नहीं मिला

झुकी जाती है पलकें ख़्वाबों के बोझ से
आँखों को मगर नींद का बिस्तर नहीं मिला

सर पे लगा है जिसके इलज़ाम क़त्ल का
हाथों में उसके कोई भी खंज़र नहीं मिला

किस्तों में जीते जीते टुकड़ों में बंट गए
खुद को समेट लूँ कभी अवसर नहीं मिला

फिरता है दर्द सैकड़ों लेकर यहां नदीश
अपनों की तरह से कोई आकर नहीं मिला

© लोकेश नदीश

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