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19 May 2016 · 1 min read

विरहणी

अक्षर अक्षर नाम तुम्हारे करती हूँ..
जब मैं इस जीवन के पन्ने भरती हूँ..
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कलियां हों या हों कंटक इन राहों में…
बाधाओं से कब किंचित मैं डरती हूँ…
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बीत रहे हैं पल बहती सरिता जल से…
इक पल जीती हूँ दूजे पल मरती हूँ…
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छा जाते मेघा काले विस्तृत नभ पर..
बूंदों संग बनकर आंसू तब झरती हूँ…
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सुनती हूं कागा को बुनती हूँ सपने…
ओढ़ विरह को सजती और सँवरती हूँ…
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अक्षर अक्षर नाम तुम्हारे करती हूँ..
जब मैं इस जीवन के पन्ने भरती हूँ..

अंकिता

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