शीर्षक:- बाबासाहेब — अंधेरे में जलता हुआ दीप
शीर्षक:- बाबासाहेब — अंधेरे में जलता हुआ दीप
कलम ने जब झुकी पीठों को सीधी राह दिखाई,
संविधान की स्याही में समानता की धूप उतर आई।
भीड़ में जो अकेला था, वही सबसे मुखर निकला,
बाबासाहेब—अंधेरों में एक जलता हुआ दीप निकला।
टूटी चप्पलों ने सपनों को उड़ने का साहस दिया,
हर प्रश्न के उत्तर में उन्होंने इंसाफ़ रचा, पिया।
न जात, न भेद, न ऊँच-नीच का कोई साया,
उनके शब्दों ने मनुष्यता का अर्थ समझाया।
6 दिसंबर नहीं, हर दिन उनका संदेश फूटा—
“जहाँ अन्याय है, वहीं मेरा अस्तित्व टूटा।”
डॉ. अंबेडकर—नाम नहीं, एक संकल्प का स्वर,
जो हर पीड़ित के सीने में बनता है पत्थर से पत्थर।
इतिहास के पन्नों में नहीं, दिलों में वे जीवित हैं,
उनके विचार ही आज़ादी की असली तासीर लिखित हैं।
— शाहबाज़ आलम “शाज़”
युवा कवि स्वरचित रचनाकार सिदो-कान्हू क्रांति भूमि बरहेट सनमनी निवासी