ग़ज़ल
आज उसी शह्र से हम फिर से गुज़र बैठे ।
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दिल तोड़कर मेरा ,जो बना अपना घर बैठे ।
बताए कौन ये उनको गुनाह क्या कर बैठे ।
अश्कों से बचने के लिये, ग़ज़ल को गुनगुनाया ।
किसे पता अश्कों से ही तर दामन कर बैठे ।
खूब चौकसी की ,अपने दिल की धड़कनों की
पता ही न चला कि हम,कब खोकर ज़िगर बैठे ।
करते नहीं हैं उनसे हम वफ़ा की आरजू
नज़रों से दिल चुराने का ,जो ले हुनर बैठे ।
मुद्दतें हो गईं थीं जिन गलियों को भूले हुए
आज उसी शह्र से हम फिर से गुज़र बैठे ।
डॉ रागिनी स्वर्णकार,इंदौर