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22 Nov 2025 · 2 min read

शिकायत पापा से

ऊपर से कुछ सख्त
भीतर से बेहद मुलायम
जिन्दा है पिता तो
मेरी कायनात है कायम।

हजार दुःख सहते हुए वह
मेरी रोटियां जुटाता है,
सबका पेट भर स्वयं
अक्सर भूखा सो जाता है।

जुराबे झांकती है उसकी
फटे जूते के कोनों से,
फटी बनियान को छिपाये
रहा लम्बी आस्तीनों से।

बहाना पेट में गैस का बता
स्वयं चाय नीबू की है पीता ,
हमारे लिए दूध जुटाने को
सदा ही परेशान वह रहता।

इन सबके बाद भी सबको
शिकायत है रही उससे ,
परेशान सा फिरता कहे
अपनी परेशानी वह किससे?

दादा को शिकायत मेरे
पापा से हमेशा रही ,
अब मै किससे क्या कहूँ
मेरी सुनता ही नहीं।

दादी को भी शिकायत
है उन्ही से ही रही ,
हमेशा बहूँ की ही सुनता
उसे मेरी चिंता कहाँ रही?

अनवरत मम्मी को सदा
पापा से रही शिकायत भी ,
विवाह के इतने लम्बे
अंतराल के उपरांत भी।

कि आज तक अपनी मां के
पल्लू से ही बधे रहे,
धोबी के कुत्ते की तरह पापा
न घर के रहे न घाट के।

चाचा की शिकायत भी
मुसलसल है यही सब रही,
भैया ने मेरे साथ कभी
कोई न्याय किया ही नहीं।

जबकि पापा ने सजा कमरा
अपना था उनको दिया,
स्वयं बैठक में ही उन्होंने
बेबस था बसेरा कर लिया ।

एक बार बुआ ने भी अपना
गुबार ऐसे निकाला था,
कि उनकी शादी में पापा ने
ठीक से खर्चा नहीं किया था।

हम भाई बहनो की भी सदा
शिकायत रही है उनसे,
अपनी हर कमी के लिए
ठहराया जिम्मेदार था उनको।

कभी किसी ने उनके बारे में
निरापद सोचा ही नहीं,
आखिर उनकी भी तो चाहत
कभी किसी ने था समझा नहीं।

जब से होश संभाला
मैंने पापा में बस धैर्य था देखा ,
सबकी उतरने को पहने
उनमे ही हर ख़ुशी को लखा।

पूरे परिवार का बोझ लिए
अपने ही नाजुक कन्धों पर
किया कुर्बानअरमानों को
शहीद कर दिया हम पर।

पापा बेचारे बेबस एक दिन
शिकायतों का ले पुलिंदा ,
निकल लिए आहिस्ता से
हम सब को छोड़ कर जिन्दा।

निर्मेष आज जब अपने पर
सब कुछ बन आयी है ,
पापा की बेबसी बड़े ही
सिद्दत से समझ में आयी है।

निर्मेष

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