लिखो
मन कहता कुछ छंद लिखो
हृदय प्रीत मकरंद लिखो
न जाने क्यों भाव विरोधी
लेकिन कहता अनुबंध लिखो
मैं ओज पराक्रम लिखना चाहूं
मैं एक ब्रह्म में उतरना चाहूं
हो प्रज्ञा प्रखर मुखर वसुधा पर
ऐसा अविस्मरण कहना चाहूं
कर्म की भाषा योग कहे
कर्मयोगी स्वयं ये बताय रहे
धर्म को धारण करके हो कर्म
कर्म फल से मुक्त कराय रहे
है एक ही ज्ञान विज्ञान सदा
गीता और वेद सिखाय रहे
आया जो जग में जाना निश्चित
सत्य यही बतलाय रहे