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15 Nov 2025 · 20 min read

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम: सॉंची कहे शुभम् (व्यंग्य संग्रह)
लेखक: डॉ भगवत स्वरूप शुभम्
62, डाल नगर अरॉंव रोड, सिरसागंज (फिरोजाबाद), उत्तर प्रदेश पिन 283151
मोबाइल 9568 481040
(प्राचार्य सेवानिवृत्त राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिरसागंज, फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश)
प्रकाशक: शुभदा प्रकाशन मौहाडीह, झरना, जिला जांजगीर चांपा, छत्तीसगढ़
पिन कोड 495 687
मोबाइल 7987 671210
मूल्य: 450 रुपए
संस्करण प्रथम: अक्टूबर 2025
समीक्षक: रवि प्रकाश पुत्र श्री राम प्रकाश सर्राफ, बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451
________________________
सॉंची कहे शुभम् प्रतिष्ठित व्यंग्य लेखक डॉ भगवत स्वरूप शुभम् द्वारा लिखित व्यंग्य संग्रह है। इसमें इक्यावन व्यंग्य हैं। लेखक की चिंतन प्रधान भाव भंगिमा सभी लेखों में देखी जा सकती है। एक विचारक के रूप में लेखक ने राष्ट्र और समाज की विभिन्न विसंगतियों की जॉंच-पड़़ताल की है। गहराई से समस्या के मूल तक जाने का प्रयत्न किया है। समाधान निकालने के लिए तर्क और चिंतन के साथ निष्कर्ष दिया है। व्यंग्य में हास्य अंतर्निहित होता है। इसलिए यह व्यंग्य संग्रह प्रत्येक पृष्ठ पर पाठकों को गुदगुदाता हुआ उनका मनोरंजन भी करता है। लेकिन व्यंग्य की आत्मा चिंतन में समाई हुई होती है। व्यंग्यकार एक इंच भी उस राह से नहीं हटा है। वह व्यंग्य ही क्या जिसको पढ़कर पाठक की विचार ग्रंथियॉं सक्रिय न हो जाऍं। एक चिंतक का मस्तिष्क व्यंग्य-लेखक को धारदार बनाता है। कई बार ऐसा लगता है कि लेख साधारण रीति से लिखा जा रहा है लेकिन उसमें अनायास हास्य का पुट लेखक देता है और साधारण लेख को व्यंग्य में बदल दिया जाता है । व्यंग्य लेख में सीधे सपाट विचारों की प्रस्तुति भी सही रहती है। इससे लेख की वैचारिकता बनी रहती है। उपरोक्त विचार शैलियों का प्रयोग शुभम् जी के व्यंग्य लेखन में अनेक स्थानों पर देखा जा सकता है। इन लेखों को पढ़कर एक बात तो निश्चित है कि लेखक अपनी कतिपय वैचारिक प्रतिबद्धताओं को कसौटी बनाकर लिखता है और पाठकों को वह प्रतिबद्धताएं सौंपता है। यह प्रतिबद्धताएं कतिपय ऊॅंचे आदर्शों से प्रेरित होती हैं। उनके मूल में देशभक्ति और नूतन समाज रचना की चाह है। यह समता पर आधारित समाज के निर्माण के लिए काम करती हैं। जन्म के आधार पर सब प्रकार के भेदों को अमान्य करती हैं। देश को आलस्य, भ्रष्टाचार और क्षुद्र दलगत राजनीति से मुक्त करके एक महान राष्ट्र के निर्माण का कार्य चुनौतियों से भरा हुआ होता है और उसमें लेखकों की अपनी जिम्मेदारियां होती हैं। एक लेखक के रूप में शुभम् जी समाज को सही प्रकार से सोचने और कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं। प्रस्तुत व्यंग्य संग्रह में डॉक्टर शुभम एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में सब प्रकार की बुराइयों की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं । समाज-जीवन का शायद ही कोई कोना ऐसा है जो व्यंग्य लेखक की पैनी नजरों से बच पाया हो व्यंग्य एक ऐसा हथियार है जो बड़ा तीखा और मर्म पर प्रहार करने वाला होता है । जिस बुराई पर व्यंग्यकार की लेखनी चलती है, उस बुराई से जुड़ी हुई सारी व्यवस्थाएं इस प्रहार से तिलमिला जाती हैं । कई बार उनमें आत्म सुधार की भावना भी जागती है यह व्यंग्य लेख की महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जाती है। खलनायकों के जीवन में सुधार आए अथवा न आए लेकिन सर्व सामान्य पाठक इन लेखों को पढ़कर नायक की भूमिका में अवश्य आ जाते हैं आम पाठक अच्छे लोग, अच्छा समाज, अच्छा राष्ट्र और अच्छी व्यवस्था चाहता है । व्यंग्य लेखक को उसे एक अच्छी राह दिखाते हैं। वह इन व्यंग्य लेखो को पढ़कर समाज और देश के वास्तविक शत्रुओं को पहचानता है। उसे पता चलता है कि किन दुष्प्रवृत्तियों के कारण समाज में नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है। व्यंग्य लिखने से समाज में परिवर्तन शुरू हो जाते हैं और लेखक को वैचारिक स्तर पर सफलता की व्याकुलता जगह-जगह देखने को मिलती है। यह लेख इस दृष्टि से भी सफल कहे जाएंगे कि कम से कम एक चेतना की चिंगारी तो इससे पैदा हो ही रही है । जो आने वाले कल में मशाल बनकर देश और समाज में रोशनी फैलाएगी।

व्यंग्य लेख के मूल में जो चिंतन एवं होना चाहिए, लेखक उससे भली भांति परिचित है। इसीलिए उसने लेख आरंभ करने से पहले ” पूर्वालोक ” शीर्षक से भूमिका में स्पष्ट कर दिया है कि यह व्यंग्य विधा ही है जो “सबके दबे ढके चेहरे उखाड़ने में सक्षम’ है । यह व्यंग्य ही होते हैं जो पाठकों को सत्य को स्वीकार करने के लिए बाध्य कर देते हैं । लेखक मनुष्य जीवन की समस्याओं के मूलभूत कारणों को समझता है । इसके माध्यम से समस्याओं का निदान भी किया जाता है और मानव जीवन की भूलों और जीवन विरोधी अवधारणाओं का निराकरण भी होता है।

पूर्वालोक में लेखक ने व्यंग्य को लेखन की अद्वितीय विधा मानते हुए यह बताया है कि जो “रसात्मकता’ व्यंग्य में है, वह कहीं नहीं है। लेखक ने व्यंग्य रचना में हास्य और व्यंग्य का मिला-जुला पुट एक मौलिक गुण के रूप में स्वीकार किया है। यह सब प्रतिबद्धताएं पुस्तक के इक्यावन लेखों की एक प्रकार से दिशा बता रही हैं। इससे पता चलता है कि किन विसंगतियों को किस दृष्टिकोण से और किस शैली में लेखक द्वारा प्रस्तुत किया जाएगा। आइए, पुस्तक के व्यंग्य-विषय और उनके वैचारिक ताप पर विचार किया जाए।

व्यंग्य संख्या एक ” खूॅंटा युग” शीर्षक से है। खूॅंटा सब जानते हैं लेकिन लेखक ने व्यंग्य में खूंटे को अनेक दृष्टिकोण से चटकारे लेकर समझाया है। खूॅंटे से बॅंध जाने पर जो लाभ होते हैं, लेखक ने वह भी बताए हैं और खूंटे से बॅंधने के मजे किस प्रकार लिए जा सकते हैं ;उसके उपाय भी सुझाए हैं । लेखक का कथन है कि आज हम सब खूॅंटा-युग में सांस ले रहे हैं। लेखक ने खूॅंट को पालतूपन का दूसरा नाम बताया है। जब खूंटे से बॅंध कर व्यक्ति पालतू बन जाएगा तो लेखक ने ठीक ही कहा है कि किसी के पालतू बन जाने से उसका दुम हिलाना भी आवश्यक हो जाता है। लेख में यह बात बताई गई है कि पारंपरिक रूप से तो गाय, भैंस, बकरी आदि ही खूॅंटे से बॅंधती हैं, लेकिन वर्तमान समय में नेता के सशक्त और टिकाऊ खूॅंटे से उसके चमचे और गुर्गे भी बॅंध जाते हैं। लेखक ने खूॅंटे को आन-बान-शान का प्रतीक बताया है। वैचारिक दृष्टि से एक चिंतक के रूप में लेख कहता है:-

“देश की सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक व्यवस्था खूॅंटाधारित व्यवस्था है। सब किसी न किसी खूॅंटे से बॅंध कर सुख लूट रहे हैं।”

व्यंग्य के माध्यम से देश में व्यक्ति-पूजा की प्रवृत्ति का आकलन उपरोक्त पंक्तियों में बखूबी देखा जा सकता है। चमचों के चरित्र का चित्रण भी लेख में भरपूर किया गया है। यथा:-

जिस खूॅंटे से बॅंधे हो, उसी के रहो।

खूॅंटे के समक्ष सदैव निरीह प्राणी दिखो।

व्यंग्य संख्या (2) का शीर्षक ” दुश्मनों का संसार ” है। इसमें नीति की बहुत अच्छी बातें लेखक ने समझाई हैं। एक जगह व्यंग्यकार लिखता है :

शत्रु तो बस ऐसे पैदा होता है जैसे बरसात में गिजाई, केंचुए और अन्य कीड़े मकोड़े पैदा हो जाते हैं। आदमी के अच्छे काम, उसकी प्रगति और संपन्नता भी शत्रु जन्म के लिए उर्वर भूमि का काम करते हैं।

मजाक के साथ-साथ कई बातें सूक्तियों में लेखक ने कही हैं ।उसका कहना है :-

कभी किसी को अपना स्थाई मित्र मान लेने की भयंकर भूल मत कर दीजिए।

एक बढ़िया बात लेखक ने यह लिखी है कि हमारा दुश्मन हमें सदैव जागरूक रहकर जीना सिखाता है। इसलिए लेखक ने अनेक दुश्मनों का होना बहुत बड़े सौभाग्य की बात मानी है। पाठक जब इस लेख को पढ़ेंगे तो वह अपने दुश्मनों की संख्या के आधार पर स्वयं का सौभाग्य निर्धारित करेंगे। अर्थात जिसके जितने ज्यादा दुश्मन, वह उतना ही बड़ा सौभाग्यशाली। पाठकों को सदैव प्रसन्न रहने का ऐसा मसाला शुभम् जी के व्यंग्य के अलावा भला और कहां मिल सकता है।

व्यंग्य संख्या (तीन) का शीर्षक “‘ र’ से राजनीति ” है। इसमें लेखक ने अपने अनूठे अंदाज में राजनीति के गुण गाए हैं। राजनीति की व्यंग्यात्मक रूप से तारीफ के पुल बांधते हुए लेखक ने लिखा है:-

राजनीति में योग्यता की न तो आवश्यकता है और न ही उपादेयता। दुनिया के समस्त क्षेत्रों में असफलता की उपाधि ही इसका सर्वोत्तम मानक है।

अब आप राजनीति की इससे ज्यादा प्रशंसा भला और कहां पढ़ सकते हैं। अंदरखाने में राजनीति की पोल लेखक ने खूब खोली है। उसका कहना है :-

राजनीति दिखावे के लिए तो खाती चावल दाल की तहरी है, पर कंचन कार और कामिनी में आस्था गहरी है।

यहां तहरी और गहरी का तुकांत गद्य व्यंग्य को पद्यात्मक सौंदर्य प्रदान कर रहा है। यह कार्य वही कर सकता है जो गद्य और पद्य दोनों में निष्णात हो। शुभम जी में यह असाधारण गुण है, जिसका उपयोग हमें व्यंग्य संग्रह में स्थान-स्थान पर देखने को मिलता है। इससे काव्य-पाठ सुनने का आनंद भी पाठक उठा सकते हैं।

व्यंग्य संग्रह के चौथे लेख में ईमानदारों की तारीफ के पुल लेखक ने बांधे हैं। इसका शीर्षक ” ईमानदारों का देश” है। सभी की तारीफें लेखक ने की हैं। लेखक का दावा है कि आप “लाखों जुगनुओं की टॉर्च” लेकर इस बात की खोज कर सकते हैं कि भारत ईमानदारों का देश है। “लाखों जुगनुओं की टॉर्च” शब्द का प्रयोग जैसा मजेदार प्रभाव शायद ही कोई दूसरी प्रकार की तुलना से पैदा हो पाए।

प्रोफेसरों की तारीफ करते हुए लेखक ने एक स्थान पर लिखा है:-

बेचारे आठ घटे कॉलेज में और उसके पहले और बाद में घर के क्लास रूम में कितनी मेहनत करते हैं। तब उनकी दाल रोटी का गुजारा मुश्किल से हो पता है।

ध्यान देने की बात यह भी है कि उपरोक्त टिप्पणी एक महाविद्यालय का सेवानिवृत प्राचार्य होकर लेखक कर रहा है। इतनी तारीफ बड़ी हिम्मत की बात होती है।

दुकानदारों और व्यापारियों की भी तारीफ लेखक ने की है। उसका कहना है :-

यह सभी मिलावटखोर डॉक्टर के शुभचिंतक हैं। यदि वह मिलावट नहीं करेंगे तो बेचारे डॉक्टर तो भूखे ही मर जाएंगे। इसलिए इस देश में मिलावट एक राष्ट्रीय आवश्यकता है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसा व्यंग्य बहुत से पाठक तो यही समझेंगे कि सीधे सपाट ढंग से तारीफों के पुल बांधे जा रहे हैं और लेखक बेचारा कुछ भी नहीं जानता। लेखक भी यही चाहता है।

व्यंग्य संख्या पॉंच का शीर्षक ” सॉंची कहूॅं तो” है। इसमें लेखक ने एक चिंतक के रूप में सत्य का महत्व बताया है। उसने कहा है कि जो नहीं होना चाहिए, वह झूठ है। जो होना चाहिए, वह सच है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में झूठ का बोलबाला है और सच पराजित अवस्था में दिखाई दे रहा है। न्याय का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। शरीर के भीतर की स्थिति को जिस प्रकार से त्वचा आदि चढ़ाकर ढक दिया जाता है, वह भी एक प्रकार का झूठ ही है। लेकिन लेखक ने सत्य को अंगीकृत करने पर जोर दिया है। उसका कहना है कि सत्य में जो आनंद है, वह झूठ में पैदा भी नहीं हो सकता। लेखक के शब्दों में-“झूठ व्यक्ति को ठगता है। बहुरूपिया है। जबकि सच कठोर जमीन का यात्री है।”
बहुधा लोगों को कहते सुना गया है कि संसार में झूठ बोलना जरूरी होता है। इसका जवाब लेखक ने व्यंग्य की अंतिम पंक्ति के द्वारा इस प्रकार दिया है :-

झूठ के बिना काम नहीं चलता यह एक मनमोहक बहाना है। झूठ के बिना भी सबको मिलता ठिकाना है।

वाह शुभम् जी बहाना और ठिकाना का तुकांत मिलकर अपने यहां भी गद्य में पद्य का आनंद पाठकों को दे ही दिया। बधाई

व्यंग्य संख्या 6 का शीर्षक है ” सांप से पुलिस भी डरती है” । इसमें डर को सबसे ऊंचा स्थान दिया है और बताया है:-

डर के कारण ही इस दुनिया में सारे काम होते हैं। लेकिन आजकल की स्थिति लेखक ने यह बताई है जो निडर है, वह देश को खा रहा है। उसे किसी का भी डर नहीं। भगवान का भी नहीं। जो स्वर्ग नरक नहीं मानता, उसे अपने कुकर्म का भी डर नहीं है।

इस प्रकार डर के महत्व पर लेखक ने जोर दिया है। आदमी को डरना चाहिए। यह व्यंग्य लेख अगर व्यक्तियों को किसी रूप में भी गलत काम करने से डरना सिखा दे, तो यह बहुत बड़ी सेवा हो जाएगी।

सातवां व्यंग्य ” खबरों की खुशबू बनाम खबरी” है। खबरी लोगों के बारे में सब जानते हैं। इनका काम खबरों का आदान-प्रदान करना होता है। ऐसे व्यक्तियों की महानता को सामने लाने का काम व्यंग्य लेखक नहीं करेगा, तो और कौन करेगा ! शुभम् जी ने इन्हें समाजसेवी और समाजसेविकाएं बताया है क्योंकि यह नित्य प्रति निशुल्क खबरें प्रसारित कर नाम कमा रहे हैं। यह खबरी लोग भी बेचारे क्या करें! इनकी अपनी मजबूरी है। इस मजबूरी को शुभम जी ने कुछ इस चटपटे अंदाज में लिखा है कि पाठक बिना हंसे नहीं रह सकते।:-

उनके पेट में इतनी जगह नहीं कि वह बात को उसमें संभाल कर रख सकें अथवा वे उसे पचा सकें। इसलिए उसका मुख के माध्यम से खबर-विरेचन अनिवार्य हो जाता है।

आशा है, खबरी लोगों की सेवाओं और उनकी विवशताओं को इस व्यंग्य के माध्यम से सम्मानजनक स्थान मिल सकेगा। यही तो लेखक भी चाहता है।

आठवां व्यंग्य लेख ” कुएं में भांग ” है। इसमें लेखक ने सर्वत्र भ्रष्टाचार पर प्रहार किया है। लेखक का कहना है कि सर्वत्र यह भांग इतनी व्याप्त हो चुकी है कि समझना मुश्किल हो गया है कि भांग में कुआं है या कुएं में भांग है।
सर्वत्र भ्रष्टाचार रूपी प्रदूषण के बारे में लेखक ने सटीक टिप्पणी की है। उसने लिखा है:-

इस देश में बस एक ही आदमी ऐसा है जो तथाकथित प्रदूषण से मुक्त है। वह व्यक्ति वही हो सकता है जिसे प्रदूषण और भ्रष्टता का सुअवसर न मिला हो।

नौवॉं व्यंग्य ” वाह तेरी कारीगरी ” शीर्षक से है। इसमें पति-पत्नी के संबंधों को झगड़ा-मूलक बताया गया है। यही आनंद है। इसी में जीवन का रस है।
यह मजेदार अनुभूति कोई व्यंग्य लेखक ही कर सकता है। रोजाना के इन झगड़ों और समझौतों को लेखक के शब्दों में इस प्रकार समझने का प्रयास पाठक कर सकते हैं:-

यह विच्छेद और संधि का नैत्यिक कार्यक्रम आजीवन चलता रहता है। किंतु अंत वही ढाक के तीन पात में सिमट जाता है।… समरसता जीवन नहीं है। यदि स्त्री पुरुष में उतार चढ़ाव न हो तो ऐसा जीवन भी कोई जीवन है।

जिन पाठकों का दांपत्य जीवन रोजाना लड़ने झगड़ने और तदुपरांत युद्ध विराम में बीत रहा है, वे इस लेख को पढ़कर फूले नहीं समाएंगे। उनको संसार के शाश्वत सत्य से व्यंग्य लेखक ने परिचित जो करा दिया है।

दसवां व्यंग्य ” जहर से भी जहरीला आदमी” है । इसमें बड़ी गहरी बातें व्यंग्यकार ने कही हैं ।उसने लिखा है कि सबने एक दूसरे के लिए जहर बनाया है और सब एक दूसरे को जहर से मार रहे हैं। इसलिए अंत में लेखक ने जीवन का सत्य सार रूप में सबको समझा दिया है। वह लिखता है:-

बचिए! जाओगे तो जाओगे कहां बच्चू। काम तो आदमी से ही पड़ना है। सब एक दूसरे के दुश्मन हैं । कौन किस जहर से सिधारे, कुछ पता नहीं। हां इतना सुनिश्चित है कि सिधरना जहर से ही है, जिसका निर्माण जहर से जहरीले आदमी ने किया है।

इतना कुछ लिखने पढ़ने का अर्थात माथा-पच्ची करने का लेखक का उद्देश्य यही है कि आदमी अपना थोड़ा जहर कम करे ताकि दूसरों को जहर बांटना कम हो जाए। लेकिन क्या यह हो पाएगा?

प्रेम का प्रसाद ” 11वां व्यंग्य है। इसमें लेखक ने सब में प्रेम बांटने की आवश्यकता बताई है। किंतु यह भी बताया है कि सब प्रकार के कार्यों से इस संसार में लोग घृणा ही बांट रहे हैं। प्रेम किससे किया जाए, इसके लिए भी लोग बहुत संकीर्ण दृष्टि रखते हैं। लेखक ने जातियों के आधार पर प्रेम और घृणा के कोष्ठक बनाने की बात पाठकों के सामने रखी है। विधर्मियों से घृणा की जाती है, इस बात को भी उजागर किया है। सत्ता हथियाने के लिए तो घृणा ही सबसे बड़ा हथियार होता है, यह बात भी लेख बता रहा है। संसार प्रेम प्रधान न होकर घृणा प्रधान बन गया है। लेखक का निष्कर्ष यह है कि “प्रेम बिंदु है तो घृणा कटु सिंधु है। एक का कण है तो दूसरा कण-कण में है।”

ऊपर की कमाई ” 12 वॉं लेख है। ऊपर की कमाई सब जानते हैं। यह शब्द भी बहुत प्रचलित है। लेकिन ऊपर वाले के साथ इसका संबंध जोड़कर अपराध-बोध पैदा कर देना यह व्यंग्य लेखक की कुशलता कही जाएगी। उसने प्रश्न किया है कि ऊपर वाले को अनदेखा क्यों करते हो? उसने यह भी बताया है कि ईश-पूजक आदमी ऊपर की कमाई का इतना दीवाना हो जाता है कि उसे इतना भी होश नहीं रहता कि वह सामने वाले का गला काट रहा है।

ऊपर की कमाई के सब दीवाने हैं । इसके प्रशंसा के ही प्रशंसक हैं । इसीलिए तो व्यंग्य लेखक कह रहा है कि लड़की की शादी के लिए जब लोग वर की तलाश करते हैं तो लड़के की “ऊपरी कमाई पर अधिक और वास्तविक ईमान की कमाई पर” नजर कम रखते हैं। लेख आत्ममंथन के लिए समाज को झकझोरने वाला है।

झोलाछाप की चर्चा 13 वें व्यंग्य में है। इसकी शुरुआत ही सीधी सपाट धारदार शैली में हुई है:-

जब बिना वैध डिग्री प्राप्त किए ही गली-गली में डॉक्टर साहब पुजने लगे तो कौन भकुआ किसी मेडिकल कॉलेज में आंखें फोड़ने और मोटी-मोटी रकम छोड़ने जाए।

सचमुच झोलाछापों के निरंकुश साम्राज्य के बारे में लेख खुलकर अपनी बात कह रहा है। यह झोलाछाप सब जगह छाए हुए हैं। इन्हें आता-जाता कुछ नहीं है। लेकिन इनकी चमक दमक देखते ही बनती है। इनका महत्व किस लिए है, इसे एक वाक्य में लेखक ने स्पष्ट कर दिया है:-

झोलाछाप के झोले में टेबलेट कैप्सूल सिरिंज ड्रिप के साथ-साथ एक और चीज अनिवार्य है और वह चीज है चांदी का जूता।

फॉल इन लव 14 वॉं व्यंग्य है। इसमें नए शब्द रिलेशनशिप की व्याख्या है। लेखक के अनुसार यह समाज और उसकी मान्यताओं को धता बताने की कार्यवाही है। लेखक के शब्दों में:-

गिर जा किसी के प्रेम में और बन जा पेड़ की लता

व्यंग्य संख्या 15 है का शीर्षक ” सोचने बैठे हैं तो ” है। इसमें सोचते-सोचते ही व्यक्ति न जाने कहां-कहां की यात्रा करता रहता है, इसकी चर्चा की गई है। लेखक का कहना है कि यात्रा सोद्देश्य होनी चाहिए। चिंतन यात्रा की सार्थकता होनी चाहिए।

16वां लेख ” कवियों की कसौटी ” शीर्षक से है । इसमें लेखक ने बाजार के भीतर का हाल बताया है । उसका कहना है:-

कवियों का बाजार लगा है। जो पैसे से मानद पीएचडी कर प्रदान कर दे, वही सबसे सगा है; मान सम्मान शॉल प्रतीक चिन्ह प्रमाण पत्र नारियल विक्रय का बहुत बड़ा बाजार है।

बात कटु सत्य हैं लेकिन बाजार तो लगा हुआ है और व्यंग्य पढ़ने तथा सराहने के बाद भी यह बाजार शायद ही कम हो।

व्यंग्य के विषय शुभम जी ने कुछ चटपटे लिए हैं, कुछ अटपटे लिए हैं और कुछ मीठे लिए हैं। मीठे विषयों में गुड़ ही गुनहगार शीर्षक महत्वपूर्ण है। इसमें गुड को आधार बनाकर चर्चा की गई है और अंत इसी बात पर है कि “अरे भाई गुड की भेली न दीजिए, गुड जैसा तो बोलिए।”

नवीनीकरण शीर्षक से व्यंग्य में साहित्यिक आदि क्षेत्र में नए कारनामे करने पर टीका टिप्पणी है। व्यंग्य की यह पंक्ति अपने आप में बहुत कुछ कह रही है:-

स्वघोषित नव छंद निर्माण का अपने नाम इतिहास लिखवाते हैं। आदमी की महत्वाकांक्षा जो न करें कम ही है।

लुटेरों के बीच किसान शीर्षक से लेख में किसान की व्यथा है।

मोबाइल के बच्चे आधुनिक युग को दर्शन वाला व्यंग्य है। जिसे देखो मोबाइल में सिमटा हुआ है। बड़े और बच्चे सब मोबाइल के दीवाने हैं । चारों तरफ मोबाइल के दुष्प्रभाव को व्यंग्य लेखक ने कुछ इस तरह शब्दों में पिरोया है:-

स्कूल कॉलेज के बच्चों की पढ़ाई विदा हो गई रही । बची वह ऑनलाइन क्लास ने पूरी कर दी। टीवी को टीबी नहीं कैंसर हो गया। रेडियो ट्रांजिस्टर टेप रिकॉर्डर कैलकुलेटर जाने कहां चले गए। इस एक ने इन सबको ही मार डाला।

राजनीति में विरोधी दलों का काम केवल विरोध करना ही होता है, इस प्रवृत्ति को दर्शाने के लिए व्यंग्य का शीर्षक है हमारा एकमात्र धर्म: विरोध
नेता लोग सिर्फ विरोध करते रहते हैं। उन्हें विरोध करते-करते देश-विरोध करना भी आ गया है। इसी पर यह व्यंग्य केंद्रित है।

कुंभ नहाएं शीर्षक से व्यंग्य लेखक ने एक पूरा लेख ही लिख डाला है। इसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि केवल कुंभ नहाने से व्यक्ति का उद्धार नहीं होता बल्कि भीतर से खाली होने से ही व्यक्ति का उद्धार संभव है। लेखक की यह पंक्तियां अत्यंत सराहनीय हैं :-

एक कुंभ आपके धड़ पर है और एक कुंभ उधर है। बड़े में छोटे को खाली भर करना है और हल्का होकर तरना है।

यहां भी करना और तरना का तुकांत गद्य में पद्य का आनंद भर रहा है।

मालिक शब्द को आधार बनाकर एक लेख लिखा गया है। इसमें बताया गया है कि जो मालिक होते हैं वह कोई काम नहीं करते। बस मजे में बैठे रहते हैं। लेखक ने समाज में मालिक नामक जीव को सबसे निकम्मा बताया है।

नहाने से पुण्य शीर्षक लेख में लेखक ने केवल नहाने से पुण्य प्राप्ति को ठुकरा दिया है। उसका कहना है कि मछलियां तो दिन-रात नहाती रहती हैं लेकिन उनका उद्धार नहीं होता।

मच्छर का एकालाप शीर्षक से व्यंग्य में मच्छर की व्यथा कथा कही गई है। मच्छर के माध्यम से यह बताया गया है कि असली खून पीने वाली तो मच्छरियां होती है अर्थात मच्छरों की घरवलियां बहनें और मम्मियां होती हैं। बेचारे मच्छर तो व्यर्थ ही बदनाम होते रहते हैं।

मैं व्यंग्य हूं इसमें व्यंग्य की विशेषता बताई गई है। व्यंग्य का उद्देश्य लेखक ने किसी की हॅंसी उड़ाना अथवा अपमानित करना नहीं बताया बल्कि यथार्थ को सबके सामने लाना बताया है। यही व्यंग्य की सच्ची परिभाषा है। कई बार व्यक्ति अपने आप पर अथवा अपने वर्ग समूह पर भी व्यंग्य कर देता है। मगर इसके लिए बड़ा ह्रदय चाहिए। हिम्मत भी चाहिए । शुभम् जी ने यह काम किया है ।

कुछ निजी संस्मरण व्यंग्य में प्रस्तुत करने से भी लेखक नहीं चूका पहले मैं शीर्षक से जो व्यंग्य लिखा गया है, उसमें लेखक ने 1991 में शीतलाखेत अल्मोड़ा के पहाड़ों पर रोवर स्काउट लीडर की ट्रेनिंग का आदर्श वाक्य मैं नहीं, पहले आप का स्मरण किया है। अच्छे विचारों का स्मरण व्यंग्य मैं कर देना भी अच्छी बात होती है। एक हास्य दोहा भी लेखक का स्वरचित जान पड़ता है। बढ़िया है। इस प्रकार है :-

लिए कटोरा हाथ में, खड़ा बफर के बीच। तंदूरी रोटी मुझे, लूं पहले मैं खींच।।

बहुत-सी दावतों में अतिथियों के बीच जो छीना-झपटी होती है उसको उपरोक्त दोहा बखूबी दर्शा रहा है।

ठप्पा शीर्षक से व्यंग्य लेख समाज में चमचे और भगौने की परंपरा को दर्शा रहा है । किसी का ठप्पा जरूर होना चाहिए तभी आदमी का कोई महत्व कहलाता है । ठप्पे के बारे में लेखक ने एक बढ़िया बात कही है। पढ़कर मजा आ गया। बात मजाक की है लेकिन असलियत हर जगह दिख जाएगी। लिखा है:-

जब चाहिए एक ठप्पा तो क्यों न ठप्पा फैक्ट्री ही खोली जाए। जहां तरह-तरह के ठप्पे बनाए और मनमाने दाम पर बेचे जाएं। इन नकली ठप्पों के बल पर लोग शिक्षक प्रोफेसर प्रशिक्षक और न जाने क्या-क्या बन गए।

उपरोक्त लेख में सच्चाई को व्यंग्य के माध्यम से जो सटीक अभिव्यक्ति लेखक ने दी है, वह सराहनीय है।

कोई कुछ क्यों बोले शीर्षक से प्रारंभ में रहस्यमयता का आश्रय लिया गया है। उसे ऐसी वस्तु बताया गया है जिससे सब घृणा करते हैं लेकिन फिर भी वह सबको चाहिए। पाठक पूरा लेख पढ़ते समय यही सोचते रहते हैं कि आखिर वह क्या चीज है? अंत में लेखक बताता है कि उस महत्वपूर्ण चीज का पर्यायवाची गबन, उत्कोच, कमीशन, मिलावट, अपहरण चौर्य, राहजनी ,सुविधा शुल्क इत्यादि है।

आकस्मिकता पर भी एक बढ़िया लेख है। संसार में सब कुछ आकस्मिक हो रहा है। लेख में लिखा है :

आदमी शाम को अच्छा भला खा पीकर सोता है और सुबह जब उठता है तो घर वाले देखते हैं कि वह तो पूरी तरह उठ चुका है।

चर्चा: चुन्नट-चरित्र शीर्षक से साड़ी की चुन्नट को आधार बनाकर कितना विस्तार किया जा सकता है, यह इस लेख के द्वारा समझा जा सकता है । लेखक ने चुन्नट को अद्भुत शब्द माना है।

मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना इस व्यंग्य लेख में इस सत्य का वर्णन किया गया है कि सब की राय अलग-अलग होती है। जिसके मुंड में जैसा विचार आ जाए; वह वैसा ही आदमी, देवता या राक्षस बन जाता है।

मत कर बैर विरोध इस लेख में शक्तिशाली व्यक्ति से बैर करने के नुकसान को समझाया गया है।

साहित्य का फंगस शीर्षक व्यंग्य में साहित्य के नाम पर जो व्यावसायिक धंधा चल रहा है, उसका मजेदार तरीके से आनंद लिया गया है। भारत से नेपाल तक यह साहित्यिक धंधा लेखक के अनुसार जोरों पर है। साझा संकलन के नाम पर नए कवियों का शोषण हो रहा है ।

दल बनाम दलदल शीर्षक में दल को ही दुलत्ती कहा गया है। लेखक का कहना है कि दल के पीछे चलने वालों को सावधान होना चाहिए। वरना कभी भी दुलत्ती पड़ सकती है।

मूल्यांकन शीर्षक व्यंग्य में एक अच्छा दोहा है:-

मूल्य यहां जिसका नहीं, वही जताए मोल। जीभ तराजू तोलते, मूल्यांकन के बोल।।

चौरासी लाख योनियॉं शीर्षक व्यंग्य में लेखक ने जन्म और पुनर्जन्म पर भारी शोध किया है।
उसने बढ़िया प्रश्न उठाया है कि यों तो कुछ मनुष्य देहधारी भी देह से मनुष्य हैं किंतु कर्म से वे वृश्चिक सांप से भी भयंकर हैं । पता नहीं किस कर्म के कारण उन्हें यह मनुष्य योनि मिल गई।

रैपर शीर्षक से व्यंग्य इस बात को दर्शा रहा है कि अंदर की वस्तु से बाहर के रैपर का महत्व कहीं ज्यादा होता है। रैपर चमकता है और अपनी चमक से सबको मोह लेता है। जब तक चढ़ा रहता है, रैपर का महत्व रहता है । जहां उतरा, फिर कोई मोल नहीं होता। उदाहरण देते हुए व्यंग्य लिखता है:-

किताब के ऊपर निपटा हुआ लोकार्पण पूर्व का रैपर बेचारा। ऐसे बेदर्दी से उतार फेंका कि जैसे उसकी कोई अहमियत ही न हो

एक लेख हरियाली ही हरियाली शीर्षक से है। दूसरा लेख चक्कर का चक्कर शीर्षक से है। इनमें शब्दों की महिमा का वर्णन किया गया है। शब्द को आधार बनाकर उसके विभिन्न अर्थ निकालना सरल काम नहीं होता मगर यहां उसे देखा जा सकता है।

मलीदाभक्षी नामक व्यंग्य में खाने की सुंदर मिठाई मलीदा के आधार पर समाज जीवन का चित्रण है। सब लोग मलीदा खाना चाहते हैं। काम कोई नहीं करना चाहता।

भक्त प्रणाम भोक्ता लेख में देशभक्ति का लबादा ओढ़े व्यक्तियों को लेखक ने देशभक्त नहीं अपितु देश का शोषण करने वाले भोक्ता कहा है। यह लोग बड़े ही आकर्षक और लुभावने लबादे ओढ़े रहते हैं।

हम बादल हैं एक शिक्षाप्रद लेख है । इसमें बादलों के अनेक पर्यायवाची विस्तार से लिखे गए हैं। बादलों के कारण कम वर्षा होने का जो आरोप लगता है, उसकी सफाई भी दी गई है। लेख बताता है कि जंगलों और पहाड़ों की कटाई से बादल फटने की घटनाएं हो रही है।

आओ जाति-जाति खेलें शीर्षक में जातिवाद की बुराई पर प्रकाश डाला गया है लेखक ने लिखा है:

शादी अपनी जाति में करेगा परंतु खून चढ़वाने में न मरीज को आपत्ति है और न घर वालों को।

रीलबाज बनाम रीलवाद नामक व्यंग्य में आजकल मोबाइल पर बनने वाली तथा दिखाई देने वाली रीलबाजी की विसंगति को दर्शाया गया है। उसे लेखक ने नई पीढ़ी को गुमराह करने वाली प्रवृत्ति बताया है।

व्यंग्य संग्रह में शिक्षाप्रद लेख भी हैं । जहर खाएं जहर ही खिलाएं शीर्षक से रिफाइंड घी का उपयोग करने को मना किया गया है क्योंकि इससे एक प्रकार का जहर ही शरीर में जाता है। लेख को प्रमाणिक बनाने के लिए लेखक ने अंत में यह विशिष्ट टिप्पणी भी की है :-

इस कृतिकार के यहां घर परिवार में तथा दैनिक जीवन में रिफाइंड या वनस्पति घी का प्रयोग नहीं किया जाता। वह मात्र घर का बना देसी घी और सरसों के तेल का उपयोग करता है।

अचर्चेय शीर्षक लेख में भ्रष्टाचार को यह नाम दिया गया है। इसकी चर्चा नहीं होती। लेकिन यह सब जगह व्याप्त है।

“चीनी से भी मीठी” शीर्षक व्यंग्य में नुक्ताचीनी के महत्व को दर्शाया गया है। यह चीनी से भी मीठी है। इसे सुनने वाला और सुनने वाला दोनों मिठास में डूब कर चर्चा करते हैं । लेखक के अनुसार:

नुक्ता चीनी एक बिना पैसे का व्यापार है .. नुक्ता चीनी एक अनछपा अखबार है.. हर नुक्ता चीनी में मधुरता होती ही है.. नुक्ता चीनी तो मिठास का खजाना है।

नुक्ताचीनी पर ऐसा मधुर व्यंग्य लेख पढ़ कर भला किसे चीनी से भी ज्यादा मिठास का आभास नहीं होगा।

“कान भी ध्यान भी” शीर्षक लेख में कान और ध्यान दोनों का मिला-जुला प्रयोग जीवन में उचित बताया गया है। इसी में जीवन की सार्थकता भी कही गई है।

नए-नए शब्दों का प्रयोग लेखक की शोधवृत्ति को दर्शाता है। “चपरकनाती” व्यंग्य संग्रह का एक ऐसा लेख है जो अपने आविष्कार और अनूठेपन के लिए याद किया जाएगा। चपरकनात की उत्पत्ति लेखक ने चपत शब्द से मानी है जो थप्पड़ भी कहा जाता है। शादी विवाह में आड़ करने के लिए सजने वाली वस्तु कनात है। लेखक के शब्दों में जो थप्पड़ की आड़ में कार्य करता है, वही चपरकनाती कहलाता है। व्यंग्य में चपरकनाती को एक प्रकार का चापलूस माना गया है। उसकी विशेषता यह है कि वह अपना सिर सदा झुकाए रखता है। इसलिए विनत है। कभी भी नेता बनने की कोशिश नहीं करता। लेख में चपरकनाती की आलोचना की गई है। उनके बारे में सावधान रहने को कहा गया है। अपनी राज की बात उनसे कभी मत कहिए , ऐसा भी लेख में उल्लेख है ।

उपसंहार

छोटे-छोटे विषयों पर बड़े-बड़े गहरे संदेश देना तभी संभव हो पाता है जब उन छोटे विषयों की गंभीरता पर कोई लेखक गंभीरता से विचार करे। तभी हमें पता चलता है कि छोटी-छोटी जो प्रवृत्तियां हमारे चारों तरफ जड़े जमाए हुए हैं, वह देश और समाज को किस प्रकार खोखला कर रही हैं ।उनके बारे में लोग या तो जानते नहीं है या जानकर भी अनजान बने रहते हैं। व्यंग्य लेखक के रूप में डॉक्टर भगवत स्वरूप शुभम् ने खुलकर इन गंभीर रोगों की चर्चा की है और उनके दुष्प्रभावों को अपनी विशिष्ट हास्य का पुट लिए हुए शैली में समझाया है। इसके लिए उनके प्रति जितनी कृतज्ञता व्यक्त की जाए, वह कम है। ऐसे व्यंग्य देश और समाज में चौकीदार का काम करते हैं।

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