हुनर...!
” मिटाना हो..मिटा भी लूँ, झुकाऊँ तो झुकाऊँ सर कैसे,
अपनी ही नज़रों में गिर के, खुद से मिलाऊँ नज़र कैसे,
वो कहता है..मेरी सज़दा कर, उसमें कोई जौहर तो हो,
ज़िद के आगे हार मानके, दिखाऊँ अपनी हुनर कैसे ?”
-✍️ सुहानता ‘शिकन’
लफ्ज़ बयां करते किसी के, कहीं नज़र बोलते हैं,
भीड़ में तन्हा कोई, किसी के चले डगर बोलते हैं,
वो हासिल ही क्या..जिसे, ज़रुरी हो बयान करने की,
जिनमें हुनर हो उनकी, जहां में हुनर बोलते हैं।
मैं.. मेरा दिल.. मेरी आत्मा साफ है,
जुबां काली नहीं, ज़रा सी बेबाक है,
दिल में जो बात है, बात वही, है ज़ुबान पर,
कहता तू फिर भी आचरण में मेरी दाग़ है।
ज़रा ख़ुदा से डर.. ख़ुदा के भी क़हर बोलते हैं,
पाक इरादों पर ख़ुदा के सदा मेहर बोलते हैं
लाख करे कोशिश, कोई बदनाम करने की,
जिनमें हुनर हो………….।
कितनी तेज़ उड़ता हूँ मैं.., कभी तो पर दे मुझे,
कब तक झुकाए सर फिरूँ, उठाने तो सर दे मुझे,
करता रहा ज़ुल्मोंसितम, कई पीढ़ियों से तू हमपर,
जी हुजूरी अब न होगी, ठोकरें तू दर-दर दे मुझे।
मिट गया जो शरीर…फ़िज़ा में लहर बोलते हैं,
रवानी रगों में हो तो…हर एक उमर बोलते हैं,
मुद्दई मिटाए लाख, निशां रह जाएंगे ही जहां में,
जुबां में सर चढ़के सभी के जब हुनर बोलते हैं।
लफ्ज़ बयां करते………….।
– ✍️ सुहानता ‘शिकन’