*लघुकथा:"सहारे का स्पर्श"*
“सहारे का स्पर्श”
मीरा हमेशा से आत्मनिर्भर स्वभाव की थी। कॉलेज से निकलते ही उसने नौकरी शुरू कर दी थी। शादी के बाद भी उसने अपनी पहचान को कभी मिटने नहीं दिया। सुबह बच्चों का लंच, फिर स्कूल बस तक छोड़ना, फिर खुद ऑफिस, वहाँ से लौटकर घर का काम,सब कुछ वह बारीकी से संभालती थी।
अरविंद अक्सर कहते, “तुम तो सुपरवुमन हो, मीरा!”
और मीरा मुस्कुराकर जवाब देती, “और तुम मेरे सबसे अच्छे दर्शक।”
उसे लगता था कि वह खुद ही सब कुछ सँभाल सकती है, किसी पर निर्भर होना कमजोरी है।
लेकिन ज़िंदगी को शायद कुछ और दिखाना था।
एक शाम ऑफिस से लौटते वक्त स्कूटर के सामने अचानक एक कुत्ता आ गया। ब्रेक लगाने से पहले ही वह सड़क पर गिर पड़ी। पैर में गहरी चोट लगी और हड्डी टूट गई।
डॉक्टर ने कहा ,“कम से कम दो महीने का पूरा आराम।”
मीरा के लिए यह वाक्य किसी सज़ा जैसा था।
पहले दिन ही उसने रोते हुए कहा,
“अब घर कैसे चलेगा? बच्चों का ध्यान कौन रखेगा? ऑफिस में प्रोजेक्ट अधूरा है…”
अरविंद ने उसका हाथ थाम लिया ,“मीरा, ज़िंदगी तुम्हारे इर्द-गिर्द नहीं घूमती, लेकिन तुम्हारे बिना भी अधूरी है। तुम बस ठीक हो जाओ, बाकी सब मैं देख लूंगा।”
और उसने सचमुच सब सँभाल लिया।
सुबह मीरा की दवा और नाश्ता, बच्चों का टिफ़िन, उनके होमवर्क की मदद, रात में ऑफिस का थोड़ा काम और फिर मीरा के पास बैठकर बातें करना ,“आज तुम्हें दर्द कम हुआ?”
उसके हर शब्द में चिंता नहीं, स्नेह का भार था।
धीरे-धीरे मीरा को एहसास होने लगा कि जीवन का सौंदर्य केवल करने में नहीं, पाने में भी है।
कभी किसी के प्यार को स्वीकार करना भी एक ताकत होती है।
एक शाम बालकनी में बैठी मीरा ने अरविंद से कहा,
“तुम थक नहीं जाते क्या? इतना सब अकेले कैसे करते हो?”
अरविंद मुस्कुराए और बोले ,“जब अपनों के लिए करते हैं, तो थकान भी सुकून बन जाती है।”
मीरा की आँखें भर आईं। उसने महसूस किया कि जीवन की असली शक्ति अकेलेपन में नहीं, साथ में है।
उस रात वह बहुत देर तक सोचती रही।
वह जो सोचती थी कि किसी पर निर्भर होना कमजोरी है, असल में वही तो सबसे बड़ा सहारा है , प्रेम का सहारा।
कभी-कभी जीवन की सबसे बड़ी सीख दर्द के साथ नहीं, किसी के कोमल स्पर्श से मिलती है।
और उस स्पर्श ने मीरा को सिखा दिया,
पति के प्रेम से बढ़कर दुनिया में सचमुच कुछ नहीं।
©® डा० निधि श्रीवास्तव “सरोद”