गुज़र रहा है वक़्त यूँ ही
गुज़र रहा है वक़्त यूँ ही
लम्हा लम्हा जो हम पे भारी है,
पूछ रहा हूँ मैं ख़ुद से
क्या यही ज़िंदगी हमारी है
चाँद को भी देखूँ तो बुझा बुझा सा लगता है,
रात भी बेहद उदास, हर सिम्त बेक़रारी है
एक ख़ामोश मोहब्बत ही तो की थी मैंने
ख़ता इतनी बड़ी तो नहीं
क्यों फ़िर एक उम्र हिज्र की हमने गुज़ारी है.
हिमांशु Kulshrestha