दोहा पंचक. . . . . वक्त
दोहा पंचक. . . . . वक्त
जीवन में विपरीत जब, हो जाता है वक्त ।
रिश्तों से आसक्ति फिर, होने लगे विरक्त ।।
वक्त बड़ा बेदर्द जो, देता गहरे घाव ।
नयनों से रुकते नहीं, उन घावों के स्राव ।।
रंग अनोखे वक्त के, बदलें पल -पल रूप ।
इसके आगे तो हुए, बेबस निर्धन भूप ।।
डर कर रहना वक्त से, इसका अजब मिजाज ।
इसकी लाठी में कहाँ, होती है आवाज ।।
वक्त कहाँ ठहरा कभी, यह चलता निर्बाध ।
बिन आहट ही छीनता, साँसों को यह व्याध ।।
सुशील सरना 29-10-25