गुरु-शिष्य परम्परा
सतनाम धर्म में गुरु- शिष्य परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। गुरु घासीदास को तपोबल से दिव्य शक्ति प्राप्त होने के बाद उनके द्वारा प्रवर्तित गुरु- शिष्य परम्परा सतनाम धर्म की एक महत्वपूर्ण धरोहर है। इसमें गुरु- शिष्य सम्बन्धों को विशेष महत्व दिया जाता है। इस परम्परा में गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा माना गया है, जो शिष्य को आध्यात्मिक ज्ञान एवं मार्गदर्शन प्रदान करता है। इसमें गुरु- शिष्य सम्बन्ध एक पवित्र सम्बन्ध है, जिसमें गुरु की भूमिका शिष्य को आत्म वास्तविकता की प्राप्ति में मदद करना है।
सरल शब्दों में, गुरु- शिष्य परम्परा आध्यात्मिक ज्ञान को नई पीढ़ियों तक पहुँचाने का सोपान है। इसके अन्तर्गत गुरु अपने शिष्य को आध्यात्मिक शिक्षा देता है यानी विद्या सिखाता है। बाद में वही शिष्य गुरु के रूप में दूसरों को शिष्य बनाकर शिक्षा देता है। यह क्रम निरन्तर चलता जाता है। अर्थात जिस प्रकार एक दीप दूसरे को प्रज्जवलित करता है, उसी प्रकार गुरु भी अपने भीतर के ज्ञान को योग्य शिष्य के माध्यम से संचरित करता है।
गुरु घासीदास के प्रथम शिष्य रतीदास थे, जिन्होंने सतनाम धर्म की शिक्षाओं को जनमानस तक पहुँचाने के लिए अनेक दूरस्थ क्षेत्र के गाँवों में जाकर सतनाम का प्रचार-प्रसार किये। एक अन्य शिष्य कोदूदास भी था। इन दोनों ने इस परम्परा को आगे बढ़ाते हुए अपने-अपने शिष्य बनाए। रतीदास जी के शिष्य का नाम दुकालू दास था। इसप्रकार यह गुरु- शिष्य परम्परा निर्बाध रूप से आज भी सतनाम धर्मियों में प्रचलन में है। इन तमाम शिष्यों ने भी गुरु- शिष्य परम्परा का निर्वाह करते हुए अपने-अपने आध्यात्मिक ज्ञान और अनुभवों को भी शामिल करते हुए जन-जन को उपदेश दिए, इसे ही “सतनाम सन्तों की अमृतवाणी” कही जाती है।
गुरु घासीदास के जेष्ठ पुत्र गुरु अमरदास का जन्म आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि को हुआ था, इसलिए गुरु घासीदास के आदेशानुसार इस तिथि को समस्त सतनामधर्मी “गुरु पूर्णिमा” के रूप में मनाते हैं। इस दिन रात्रि में घर-आँगन में दीपक प्रज्जवलित कर गुरुओं को याद कर आभार प्रकट किया जाता है। सते हितम्। जय सतनाम।
मेरी 71वीं कृति : ‘सतनाम धर्म-संस्कृति’ से…।
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डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति
प्रशासनिक अधिकारी
हरफनमौला साहित्य लेखक