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24 Oct 2025 · 3 min read

कौन था भैया ?

मेरे संध्या करने का समय हो रहा था, मैं छत पर बनाये अपनी गृह- वाटिका में जैसे ही आसन लगा कर बैठने को था, उस चिड़िया के जोड़े को अचानक अपने पास कुशा के निकट आज पुनः आकर बैठते देखा। संध्या छोड़ मैं सोचने लगा अखिर बात क्या है? जो नित्य प्रति विगत एक सप्ताह से ये दोनों मेरी इस दैनिक क्रिया के सह भागी हो गये है I तमाम चिंतन के बाद भी मुझे अभीष्ट की प्राप्ति नहीं हो पा रही थी I अनेकानेक विचार व भावों से मन बेचैन हो उठा था I संध्या पर मन एकाग्र नहीं हो पा रहा था I किसी तरह उस दिन मैंने संध्या पूरी की। मजे की बात यह कि पूरे संध्या पाठ के समय उनकी उपस्थिति यथावत बनी रहती I जैसे है समापन का मंत्र “ओम नमः शम्भवाय च मयो भावय च……” की ध्वनि मेरे कंठ से प्रस्फुटित होती, वे दोनों भी अपने गंतव्य को तैयार हो उठते I मेरे आसन छोड़ने के पूर्व ही वे निकल जाते I
प्रारंभ में एक दो दिन मैंने इसे एक संयोग समझ कर अनदेखा कर दिया। पर जब यह क्रम लगभग पंद्रह दिनों तक चला तो मेरा मन विचलित हो यह सोचने को बाध्य हो गया कि कहीं यह भविष्य में मुझसे जुड़ी किसी पारलौकिक घटना की सम्भावना या संकेत तो नहीं? किसी अनिष्ट कि आशंका का तो प्रश्न ही नहीं था। संध्या में वैसे भी किसी चावल या अन्य अनाज का प्रयोग नहीं होता, जिससे कि ये आशंका हो की उसे चुनने के लिए वे आती हो। कुल मिलकर कुछ समझ में नहीं आ रहा था। कितनी बार मैंने अनुभव किया कि मेरे पूर्व ही उनका विस्मयपूर्ण आगमन हो चुका होता था I प्रारंभ में तो यह समान्य सा लगा मध्य में थोड़ा विचलित हुआ फिर यथावत समान्य सब चलता रहा I मै भी इसमें क्रमशः समायोजित होता चला गया।
दिन ऐसे ही बीतते रहे , संध्या अनवरत चलती रही। अचानक दो माह बाद उनकी अनुपस्थिति देख कर मै विचलित हो उठा। उस दिन भी मेरा संध्या में मन नहीं लग रहा था। किसी तरह संध्या पूरी करके मै उठा और जिज्ञासावस इधर -उधर उनकी तलाश प्रारम्भ की। थोड़ी देर की तलाश के बाद पड़ोस के मुंडेर पर कुछ पक्षियों के अस्थिपंजर और पास में बैठे एक बिल्ले पर मेरा ध्यान गया। मेरा ह्रदय है हैकर कर उठा। पूरी घटना मेरे सामने स्पष्ट हो चुकी थी। मै अवाक और हताश उन्हें एकटक निहारता रहा। मनो मेरे किसी प्रिय का अवसान हो गया हो। मै काफी देर तक विचलित वही मुंडेर पर बैठा कुछ सोचता रहा। अचानक मेरे मन ने एक निर्णय लिया। मैंने उस दिन का सारा अपना कार्यक्रम लंबित कर बाजार का रुख किया। एक मिटटी की हांड़ी और लाल वस्त्र रोली माला के साथ लौटा। उनके अस्थि पंजर को उस हांड़ी में इकठ्ठा किया , रोली और माला से अभिषेक किया और लाल कपडे से बांध कर नीचे उतरा। मेरे मन में यह भाव आया की ये एक सामान्य पक्षी तो नहीं ही थे , इनका जरूर मुझसे किसी तरह का कोई तो नाता व लगाव अवश्य होगा , ऊपर के घटनाक्रम से यह बात मुझे लगभग स्पष्ट हो गयी थी। यही कारण था की मुझे अब संध्या के समय उनकी प्रतीक्षा रहती थी। इस निमित्त मुझे इनका श्राद्ध व तर्पण करना चाहिये, ऐसा विहकार कर उस मिटटी के पात्र के साथ मै गंगा -तट पर पहुंच गया। मैंने एक नाव ली और मध्य -धार की ओर चल पड़ा। जैसे ही वांछित मंत्रोच्चार के उपरांत शांति पाठ कर उसका विसर्जन किया , मेरी आँखे छलछला गयी। जिन आंसुओं को अभी तक मैंने संभाल रखा था , वे पलको के तटबंधी को तोड़ कर बह चले थे। नाव वाले ने पूछा –
” भैया कहाँ से है आप ?”
” यही पास से ही हूँ। ”
” कौन था भैया ये , जिनका अस्थि विसर्जन आप किये है ?
” कौन था क्या कहे ? , बस समझ लो जो भी था मेरे लिये बहुत खास था। ”
तब तक किनारे मै पहुंच चुका था। नाव वाले से विदा ले मै घाट पर उस दिन अकारण बहुत देर तक बैठा रहा। सच कहूँ तो आज भी संध्या में मेरा मन नहीं लगता है।

निर्मेष

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