शिकायत नहीं, इज़हार है बनारस से
अरे ओ मेरी प्यारी,
मेरी शिकायत करने वाली!
ज़रा मेरी भी सुनो,
तुम तो मेरी ओर से
बनारस से लड़ने चली गईं,
पर तुम्हें क्या पता
बनारस तो ख़ुद मेरी तरफ़दारी करता है!
तुम कहती हो,
‘शिकायत है बनारस तुमसे,
तुम इतने रूमानी क्यों हो?’
पर मैं कहता हूँ
इज़हार है बनारस तुमसे,
तुमने उसे
मेरी नज़रों से मिलाया क्यों!
मैं तो बस यूँ ही आवारा
इस शहर के घाटों पर भटकता था,
मेरी रूह धूल भरी थी,
किसी पुराने महंत की तरह।
पर तुमने, मेरी सादगी!
तुमने यहाँ कदम रखा,
और इस शहर की हर ईंट ने
मुझे छेड़ना शुरू कर दिया।
शिकायत तुम्हें मुझसे नहीं,
शिकायत तुम्हें,
बनारस की हवा से होनी चाहिए
उसने मेरे मन की बात,
तुम्हारी चुनरी के पल्लू पर
क्यों लिख दी?
मैं तो बस
अस्सी घाट की चाय पी रहा था,
और तुमने जब आँख उठाई,
तो लगा जैसे सदियों बाद
गंगा में कोई दिया जल उठा हो।
मेरे मौन को तुमने
‘गोपनीय मंत्र’ कहा?
अरे पगली, वो मंत्र नहीं था
वो तो बनारस की साज़िश थी,
जो कह रही थी
अब बोल दे!
नहीं तो यह लड़की
हाथ से निकल जाएगी!
हाँ, मैंने तुम्हारी चोटी का फूल उड़ाया,
मैंने तुम्हारी
बिंदी ठीक करने का बहाना किया
क्योंकि बनारस ने मुझे सिखाया है
प्रेम यहाँ खुलकर होता है,
बिना किसी पर्दादारी के,
जैसे यहाँ जीवन और मृत्यु का
कोई भेद नहीं होता।
तो सुनो, मेरी रूठी हुई रानी!
यह ‘छेड़ना’ नहीं है,
यह मेरा बनारस-वाला इश्क़ है।
यह शिकायत नहीं,
यह इक़रार है मेरी चाहत का,
जो मैंने बनारस से सीखा
कि जब कोई चीज प्यारी हो,
तो उसे निहारो, उसे सँभालो,
और हाँ… उसे थोड़ा सा
छेड़ते भी रहो!
अब शिकायत नहीं,
जाओ! एक कप चाय लाओ,
और इस बनारस के सामने
हमारे इस मीठे तकरार को
प्रेम-कहानी बनने दो!
© अमन कुमार होली