समाज शवासन में है
कितनी सहज है यह नींद,
जिसमें कोई सपना नहीं आता।
न कोई भूख की ऐंठन,
न किसी अन्याय की जलन।
सिर्फ़ एक फैलाव
शांत, ठंडा, निस्पंद।
देखो
गली के मोड़ पर
पड़ा आदमी नहीं मरा,
वह बस समाज है,
जो शवासन में है।
उसकी पलकों पर धूल नहीं,
उदासीनता जमी है।
होंठों पर चुप्पी नहीं,
समझौते की पट्टी बंधी है।
हृदय नहीं धड़कता,
क्योंकि सब कुछ ‘नॉर्मल’ है।
भूख? नीतियों में शामिल है।
अन्याय? सिस्टम का हिस्सा है।
हत्या? खबरों की हैडलाइन है।
भीड़ चलती है,
पर भीतर कोई नहीं हिलता।
मंदिरों के शंख, मस्जिदों की अज़ान,
सब बजते हैं
पर भीतर का आदमी
अब किसी आवाज़ को नहीं सुनता।
कितनी योगिक है यह स्थिति!
हर पीड़ा को स्वीकार कर
शवासन में पड़ा समाज
अपनी ही देह की गंध से
बेपरवाह,
अपनी ही मृत्यु को
ध्यान की तरह जी रहा है।
कभी कोई झकझोरे तो कहना
शांति भंग मत करो,
हम प्रगति कर रहे हैं…
© अमन कुमार होली