मानवधर्मी बनो!
हे मानव! मानवता का सम्मान करो।
मानवधर्मी बनो! नही अभिमान करो।।1।।
जात-पात की बात करो ना,
दिल ना कभी दुखाओ।
भेदभाव ना रखो मन में,
सबको गले लगाओ।।
मानव हो, मानव का ना अपमान करो।
मानवधर्मी बनो! नही अभिमान करो।।2।।
जीवमात्र हैं सभी यहाँ पर,
मन का तुम उपचार करो।
मन में क्लेश न कटुता रखो,
अतिसुन्दर व्यवहार करो।।
जीवन सरल, सुगम्य, गुणों की खान करो।
मानवधर्मी बनो! नही अभिमान करो।।3।।
छोटों को तुम प्यार करो और
सदा बड़ों को दो आदर।
मानव मन तुम भेद न रखो,
नतमस्तक हो तुम सादर।।
ज्येष्ठ-श्रेष्ठ को अपने सदा प्रणाम करो।
मानवधर्मी बनो! नही अभिमान करो।।4।।
मानव रूप बड़ा ही दुर्लभ,
बड़े भाग्य से मिलता है।
योनि चौरासी लाख पार कर,
मानव मन ये खिलता है।।
भ्रम में पड़ ये जीवन क्यों अवसान करो ?
मानवधर्मी बनो! नही अभिमान करो।।5।।
@स्वरचित व मौलिक
कवयित्री शालिनी राय ‘डिम्पल’
आज़मगढ़, उत्तर प्रदेश।