कभी अहिंसा कभी कबूतर कभी-कभी तो कई ग़ुलाब
ग़ज़ल
कभी अहिंसा कभी कबूतर कभी-कभी तो कई ग़ुलाब
उनकी नाटकबाज़ी से तो भर सकतीं हैं कई क़िताब
नाम मोहब्बत का कर-करके जो तुमने शैतानी की
लोगों को फिर समझ न आया किसने किसको किया ख़राब
अगर मोहब्बत पेच-ओ-ख़म है, अगर सियासत उल्फ़त है
उनकी क्या ग़लती है भैया जो जीवन को कहें अज़ाब
राजघरानों की माफ़ी पर चाटुकार ही मरते हैं
क्या नकली खातों से होगा मज़लूमों का असल हिसाब
-संजय ग्रोवर
( तस्वीर: संजय ग्रोवर )
पेच-ओ-ख़म=उलझन, उतार-चढ़ाव, अज़ाब=आश्चर्य, मज़लूम=पीड़ित