साड़ी की उन प्लेटों में
साड़ी की उन प्लेटों में,
एक कहानी लिपटी है।
हाँ, वही, जो मैंने
झुककर सँवारी थीं
उस बारिश की शाम,
जब बिजली की कौंध में
पल भर को ठहर गया था
मेरा देखना…
तुम्हारा काँपना,
और फिर…
उन गीले स्पर्श से
उन प्लेटों को करीने से
पेट के पास
मेरे अंगुलियों का दबाना।
रूमानियत कहाँ होती है?
सिर्फ़ किताबों या चाँद में?
नहीं,
वो थरथराहट में
उन झीने कपड़े के तह में,
जो अब भी है
ठीक वैसे ही…
सुलझी, संयत,
मगर भीतर ही भीतर
एक अनकही,
बेतरतीब,
हल्की-सी,
गुनगुनाहट लिए।
वे प्लेटें
सिर्फ़ कपड़ा भर नहीं थीं,
वे थीं…
वह वक़्त,
वह हवा,
वह बेहिचक मुस्कान,
और तुम्हारे स्पर्श का
अज्ञात, कोमल गरमाहट…
जो शायद अब तक
तुम्हारे
ख्यालों की
नाभि के आसपास
अटका हुआ है,
एक मीठी-सी
चुपचाप सी…
यादों की…
गिरह जैसा।
वो बारिश की बूंदें
मेघो से झर कर
तुम्हारे अधरों की प्यास से
चुंबन लेकर
गंगा की भांति
तुम्हारे नाभी की
गंगासागर में समाकर
सदियों की नारी सुलभ
तृष्णा को तृप्त कर देती है।
हाॅं शायद,
तुम्हारे साड़ी की वह प्लेटें
गवाह है मेरे भीतर के
प्रार्थनाकालीन प्रेम का…
©अमन कुमार होली