मांदर की संगीत
अब यह पुरानी बात नहीं रही,
जब मांदर की गूँज
सिर्फ़ उत्सव का संकेत लाती थी।
अब यह शहर की स्मार्ट लाइटों में
कहीं खोई-सी बजती है
वही थाप, वही त्वचा,
पर अर्थ बदल चुका है।
अब जंगल नहीं,
स्मार्ट सिटी की सड़कों पर
ब्लूटूथ से जुड़ा मांदर
अलग तरह की खबर लाता है
डिलीट हुए वादों की,
रीचार्ज हुई ठगी की।
कभी यह गूँज
थकी देहों के लिए नींद थी,
अब यह नींद तोड़ती है,
अलार्म बनकर।
अब यह पूछती है
कितनी “अपडेट्स” के बाद
बदलेगा सच का सॉफ़्टवेयर?
वह मांदर
जो कभी नृत्य का साधन था,
अब मोबाइल स्क्रीन पर
“न्यू नोटिफिकेशन” की तरह चमकता है।
डग-डग-डग
अब यह सिग्नल है
नेटवर्क से बाहर पड़ी सभ्यता का।
धिन-धिन-धिन
अब यह बजता है
उन ऐप्स पर, जहाँ न्याय की प्रोफ़ाइल
लंबे समय से ‘इनएक्टिव’ है।
देखो!
उस आदिवासी के
हाथ में अब भी मांदर है,
पर उसके पीछे कैमरे हैं,
ड्रोन हैं,
और डेटा एनालिटिक्स की नंगी आँखें।
वह थाप अब न्यूज़ फीड नहीं,
रिपोर्टेड हकीकत है
जो सेंसर से बचकर
ज़मीन पर बजती है।
हर थाप अब एक पोस्ट है
सभ्यता! तुम्हारा पासवर्ड कब बदलेगा?
मांदर पूछता है
हमारा जंगल, जो अब
कॉर्पोरेट पार्क में तब्दील है,
हमारी नदी, जो
केमिकल की भाषा में बहती है,
हमारा मौन, जो
मीम्स में हँसता है
क्या यही है डिजिटल स्वराज्य?
यह मांदर
अब सिर्फ़ संगीत नहीं,
डेटा की दीवार पर उभरती
एक अनएन्क्रिप्टेड कविता है।
हर ताल में एक चेतावनी है
लॉग आउट करो झूठे वादों से,
रीसेट करो इंसानियत को!
यह मांदर की संगीत है
जो अब सर्वर पर नहीं,
सड़क पर बजता है।
जिसकी गूँज कहती है
उठो!
और टूटी स्क्रीन,
टूटी उम्मीद,
टूटे मांदर से ही
नई क्रांति का
रीबूट करो!
©अमन कुमार होली