समझाना नहीं आता
नहीं रुठा था तुमसे गम ज़दा जरूर था
तुम्हारी ऒर न देखा ये मेरा कसूर था
मुसीबतों से घिर गया था शांत हो गया
लड़ा अकेले ही नहीं कहा ज़रूर था
रहा तो हूँ मैं ज्यादा अपनी आला मांद में
बना तो मेरे वास्ते घर इक जरूर था
ख़फ़ा मैं तुमसे कब परेशां खुद से ही रहा
नहीं बता तुम्हें सका जरा सा भूल था