हाँ, मुझे नया समाज चाहिए
पुराने फ्रेम तोड़ दो।
जंग लगे ताले तोड़ दो।
यह दरवाज़ा नहीं
यह सड़ी हुई परंपरा है
जो साँस रोकती है।
मुझे पुराना समाज नहीं चाहिए।
तुम्हारा धर्म
तुम्हारा इतिहास
तुम्हारी नैतिकता
सब सफेद झूठ है।
सब छलावा है।
मुझे वह व्यवस्था नहीं चाहिए
जहाँ आदमी की कीमत
उसके बैंक बैलेंस से तय होती है,
जहाँ कुर्सी पर बैठा बौना
हमारे भविष्य पर हस्ताक्षर करता है।
मैं अस्वीकार करता हूँ!
तुम्हारी सड़ चुकी दीवारें।
तुम्हारे पोथियों के धूल भरे पन्ने।
तुम्हारी ईमानदारी का ढोंग
और समर्पण की सस्ती कविताएँ।
मुझे नया समाज चाहिए
जहाँ सड़क से उठेगा आदमी
और सीधा आँख में देखेगा।
जहाँ सत्ता
किसी वंश की जागीर नहीं होगी,
बल्कि हथेली की मिट्टी होगी
जो हवा में उड़ाई जा सकती है।
कोई नायक नहीं।
कोई देवता नहीं।
बस आदमी।
जो अपने लिए जिए
और दूसरे के लिए लड़े।
मुझे ऐसा स्कूल चाहिए
जहाँ किताब से पहले
सवाल पूछना सिखाया जाए।
जहाँ गुरु
सिर्फ़ एक मित्र हो
न कि ज्ञान का तानाशाह।
यह केवल सुधार नहीं है।
यह विस्फोट है।
पुराना सब कुछ जल जाए
और उस राख से
बिना किसी नक्शे के,
बिना किसी पुरानी नींव के,
एक सपाट, कठोर, नया समाज खड़ा हो।
जहाँ रोटी पसीने की सुगंध देगी,
न कि दान की भीख।
जहाँ औरत
केवल एक देह नहीं होगी
बल्कि निर्णय लेने वाली
एक संपूर्ण इकाई होगी।
हाँ, मुझे नया समाज चाहिए!
आज। अभी।
और मैं इसके लिए
किसी भी पुराने पुल को
तोड़ देने को तैयार हूँ।
क्योंकि अब
इंतज़ार करने का वक्त नहीं है।
सिर्फ़ शुरू करने का वक्त है।
©अमन कुमार होली