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13 Oct 2025 · 1 min read

दोहा पंचक. . . . लिव - इन

दोहा पंचक. . . . लिव – इन

जलकुंभी सा बढ़ रहा, लिव-इन का अब रोग ।
प्रतिबंधों से हो गया , मुक्त काम का भोग ।।

लिव – इन के अब रोग में, अंधा है नव काल ।
प्रखर हुई अब वासना, कामातुर है चाल ।।

अर्थ नहीं प्रतिबंध का, विचरण है स्वच्छंद ।
लिव – इन के माहौल में, केवल भोग पसंद ।।

भोग पिपासा बढ़ गई, बंध हुए निर्बंध ।
प्रेम दुर्ग में वासना, फैलाती दुर्गन्ध ।।

विचरण अब स्वच्छंद हैं, बंधन सब निर्मूल ।
मुक्त भोग परिणाम में , सिर्फ शूल ही शूल ।।

सुशील सरना / 13-10-25

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