दोहा पंचक. . . . लिव - इन
दोहा पंचक. . . . लिव – इन
जलकुंभी सा बढ़ रहा, लिव-इन का अब रोग ।
प्रतिबंधों से हो गया , मुक्त काम का भोग ।।
लिव – इन के अब रोग में, अंधा है नव काल ।
प्रखर हुई अब वासना, कामातुर है चाल ।।
अर्थ नहीं प्रतिबंध का, विचरण है स्वच्छंद ।
लिव – इन के माहौल में, केवल भोग पसंद ।।
भोग पिपासा बढ़ गई, बंध हुए निर्बंध ।
प्रेम दुर्ग में वासना, फैलाती दुर्गन्ध ।।
विचरण अब स्वच्छंद हैं, बंधन सब निर्मूल ।
मुक्त भोग परिणाम में , सिर्फ शूल ही शूल ।।
सुशील सरना / 13-10-25