एक था मुक्तिबोध
मुक्तिबोध मर गया
यह कैसी ख़बर है,
जो अख़बारों में नहीं छपी।
सिर्फ़ एक
बेचैन, गंदले, अर्ध-उजाले कमरे में
अँधेरे की टूटी खिड़की से झाँकती
एक तिलस्मी चाँदनी ने
देखी थी वह मृत्यु।
और साथ में मर गई
वह फैंटेसी,
जो अँधेरे में भटकती थी
दिमाग़ के गुहान्धकार में
एक भयानक, स्याह सत्य को ढूँढ़ती हुई।
मुक्तिबोध!
तुम नहीं रहे,
पर तुम्हारा ‘ब्रह्मराक्षस’
अभी भी है
चौक पर, झील के किनारे,
अपने आत्म-शोध की
भीषण, अपाहिज पूर्णताएँ
धोता हुआ,
पानी में डूबे हुए
गलित, पुरातन सत्यों को
टटोलता हुआ।
वही फैंटेसी
जो थी तुम्हारी
मुश्किल, संश्लिष्ट
भूल-ग़लती का गवाह
अब चुप है।
वह भीतर का आदमी,
वह छटपटाता,
ईमानदार,
परंतु असमर्थ व्यक्तित्व
जो सड़क पर
जन-जन के हृदय में
किसी भयानक ‘गुप्तचर’ सा
विचरण करता था…
वह भी मौन है।
मगर, सुनता हूँ:
उस गली के नुक्कड़ पर,
जहाँ से रोज़ गुज़रते थे तुम
एक लंबा, उदास,
टेढ़ा-मेढ़ा चाँद का मुँह
अभी भी झाँकता है—
पुरानी, जीर्ण दीवारों से।
क्या वह तुम हो, मुक्तिबोध?
या कोई भूत
तुम्हारा
संशय-ग्रस्त,
संघर्ष-रत,
जन-क्रांति के स्वप्न से
भरपूर?
नहीं, तुम मर गए।
और मर गई वह
तुम्हारा
असंग, बबूल-पन।
लेकिन अब, हर एक
टूटते हुए ‘पल’,
और हर एक
अँधेरे में अनागत की चिंता
ढोता हुआ साधारण आदमी
तुम्हारी फैंटेसी है!
वह नहीं मरी।
वह गूँजती है
‘मुझे कदम-कदम पर’
किसी अज्ञात,
परंतु चिर-परिचित
राहगीर की तरह
अस्तित्व के ‘अंत:करण के आयतन’ में।
तुम मर गए।
मगर फैंटेसी
छोड़ गई
एक ज्वाला
तुम्हारे हर पाठक के
दिमाग़ी गुहान्धकार में।
वहाँ, जहाँ
सिर्फ़ सत्य की
चुभन भरी रोशनी है।
©अमन कुमार होली