"ख़ुद की लाश लिए चलता इंसान"
ये जो तू अपने काँधे पर,
ख़ुद की ही लाश लिए खड़ा है,
किस बात का गुरूर है तुझको,
इस मिट्टी की काया पर बड़ा है?
नादाँ! समझ बैठा तू ख़ुदा से भी बड़ा,
जिसकी रहमत से ही तू ज़िंदा खड़ा।
ख़ुदा की खुदाई तुम्हें मुबारक,
मैं तो काफ़िरों की हिमाक़त करता हूँ,
इस ज़हरीले जहाँ में जीने की हिम्मत करता हूँ।
डर है बस इतना कि कहीं
ये दुनिया नौंच न डाले मेरी रूह के परत,
इसलिए ख़ुद की कफ़न ओढ़े
मैं चलता हूँ खामोश सफ़र पर अब हरपल।
अब मेरा रब से कोई वास्ता नहीं,
न दुआ में सुकून, न सजा में डर कहीं।
अंधेरे के सिवा अब कोई रास्ता नहीं,
मौत का इंतज़ार है…
बस यूँ ही जीता हूँ —
क्योंकि ज़िन्दगी अब किसी से राब्ता नहीं रखती।
कलमकार ✍️ अजहर अली