पथ में दो दीप
पथ में दो दीप
प्रिया !
आज क्यों ये रात
इतनी गहन, इतनी चुप?
क्या इन तारों की चमक
हमारे भीतर के कोलाहल को सुनती है?
मैं चाहता हूँ
तेरे नयन-सरोवर में
खो जाऊँ,
पर एक भय है
कहीं इस गहराई में
मेरा आत्म-बोध न डूब जाए।
प्रिय,
यह रात
हमारे प्रेम की साक्षी है।
इन तारों की चमक
हमारे संकल्प की है।
यह जो अग्नि
भीतर धधकती है,
यह वासना की नहीं,
आत्मा की ज्योति है।
इसे बुझाना नहीं,
इसे दिशा देना है।
यह हमें जलाएगी नहीं,
बल्कि शुद्ध कर जाएगी।
किंतु
मेरे भीतर
एक तूफान उठता है,
एक लालसा, एक अधीरता।
मेरा मन
तेरे स्पर्श के लिए
पागल सा है।
क्या यह प्रेम नहीं?
क्या यह पाप है?
नहीं, प्रिय।
यह पाप नहीं,
यह परीक्षा है।
प्रेम तो एक तपस्या है।
तू मुझे छूओ
पर अपनी आत्मा से।
अपने मन की प्यास को
अपने हृदय की शांति से
बुझा।
हमारा मिलन
बाहरी नहीं,
भीतरी है।
यह हमारे शरीर का नहीं,
हमारी आत्माओं का मिलन है।
तो हम
एक-दूसरे के हाथ पकड़
इस अग्नि पर चलेंगे।
न जलेंगे,
न मिटेंगे,
केवल निर्मल होंगे।
हमारा प्रेम
एक दीप होगा,
जो हमारे पथ को
स्वयं प्रकाशित करेगा।
और इस पवित्रता से
हम जीवन को
एक नया अर्थ देंगे।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा ‘विनीत’