कैसे करती हो तुम सामना
कैसे करती हो तुम सामना
कैसे करती हो तुम सामना,
हर दिन, हर पहर, हर रात,
जब दुनिया थमा देती है तुम्हें
अपने अधूरे सवालों का बोझ।
तुम्हारी मुस्कान में छिपे होते हैं
अनगिनत आँसू, अनकहे दर्द,
फिर भी थामे रहती हो तुम
हर घर की नींव, हर रिश्ते का गर्भ।
जब कोई कहता है
“ये तो तुम्हारा फर्ज़ है”,
क्या जवाब देती हो तुम
जब फर्ज़ बन जाता है फ़ाँसी?
तुम्हारी कोख में पलती है
सिर्फ़ संतान नहीं,
बल्कि एक पूरी सदी की उम्मीद
एक पूरी पीढ़ी की बुनियाद।
तुम झेलती हो
नज़रों की छानबीन,
शब्दों की तलवार,
और कभी-कभी तो चुप्पी का शोर।
तुम्हारी चुप्पी भी
कोई युद्ध होती है
जिसमें हर दिन
एक आत्मा गिरती है घायल।
फिर भी तुम उगती हो
हर सुबह सूरज की तरह,
धूप से तपकर भी
रौशनी बाँटती हो सबको बराबर।
कभी माँ बनकर, कभी बहन,
कभी प्रेमिका, कभी पत्नी,
हर रिश्ते में खोकर भी
खुद को कहीं बचा लेती हो।
तुम्हारे हाथों में सिर्फ़ चूड़ियाँ नहीं,
वक़्त की लकीरें भी हैं
जो गवाह हैं हर उस त्याग की
जिसे तुमने कभी शब्द नहीं दिया।
तुम्हारी हँसी में
हर आँधी का सामना करने की शक्ति है,
तुम्हारी आँखों में
हर तूफ़ान को समेट लेने की हिम्मत।
और जब कोई पूछे
“कैसे करती हो तुम सामना?”
तुम बस मुस्कुरा देना,
क्योंकि तुम्हारी मुस्कान
एक क्रांति है शांत, पर अडिग।