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11 Oct 2025 · 1 min read

समय के पार मैं”

“समय के पार मैं”

हथेलियों से फिसलता जाता
समय का हर रेशा, हर पल, हर साँस,
जैसे रेत की नन्ही बूँदें
जो थामने की कोशिश में
और तेज़ी से फिसल जाती हैं।

हर दिन किसी रिश्ते की मरम्मत में बीता,
कभी दोस्ती के धागे सुलझाए,
कभी परिवार की गांठें खोलीं,
कभी किसी की मुस्कान बनने के लिए
अपने आँसू छुपाए।

वक़्त की इस रखवाली में,
मैं खुद को भूलती चली गई
एक परछाईं बन गई अपने ही घर में,
जो सबके लिए जगमग थी,
पर अपने भीतर अँधेरा पालती रही।

अब जब आईने में
वक़्त की लकीरें झलकती हैं,
तो उनमें किसी और की कहानी नहीं,
सिर्फ़ मेरी अपनी चाहतें
धीरे-धीरे साँस लेती दिखाई देती हैं।

वे सपने,
जो कभी अलमारी के ऊपरी खाने में रखे थे,
अब फड़फड़ाने लगे हैं
कहते हैं, “हमें उड़ना है,
अब और देर मत कर।”

तो आज,
मैंने तय किया है —
वो समय जो मैंने औरों पर लुटाया,
अब खुद को दूँगी।

वो शब्द जो कभी होंठों तक आए नहीं,
अब कविता बनकर बहेंगे।
वो रास्ते जो छूट गए थे,
अब पैरों तले फिर से साँस लेंगे।

क्योंकि अंततः
रिश्ते, दोस्ती, प्रेम
सब सुंदर हैं,
पर मृत्यु के द्वार से गुजरना
हर किसी को अकेले ही होता है।

तो अब मैं जीना चाहती हूँ
इस “अकेलेपन” की सच्चाई के साथ
अपने भीतर की स्त्री को,
अपने अपूर्ण स्वप्नों को,
और उस समय को,
जो अब भी मेरा इंतज़ार कर रहा है,
अपने ही हृदय के भीतर।

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