जब मिट्टी चुप हो जाए"
“जब मिट्टी चुप हो जाए”
जब मिट्टी चुप हो जाए,
जब तुलसी सूखने लगे,
जब आँगन के दीप
काँच के पीछे जलने लगें
तब समझो, कुछ छूट रहा है।
एक समय था,
जब भोर की पहली किरण
कनक की थाली में उतरती थी,
और आरती की लौ
हर घर के माथे को छूती थी।
पायल की झंकार में
आशा नाचती थी,
और बच्चों की हँसी में
संस्कार बोलते थे।
पर अब
दीवारें हैं, पर दीवारों में
गूँज नहीं है।
दरवाज़े हैं,
पर उनमें प्रतीक्षा नहीं।
अब बहनों की चूड़ियाँ
कमरों में सिसकती हैं,
माँ के हाथों की रोटियाँ
सिर्फ़ पेट भरती हैं,
मन नहीं।
अब बेटी को सिखाया जाता है
“धीरे चल, चुप रह, आँख मत मिला,”
जैसे संस्कृति की रक्षा
उसकी खामोशी से होगी।
कहाँ गए वो गीत
जो दादी सुलाया करती थी?
कहाँ गया वो जल
जो पीने से पहले पूजा जाता था?
अब जो कुछ है,
वो सुविधा है,
संवेदना नहीं।
अब किताबें हैं,
पर कथा नहीं।
अब लाइट है,
पर लौ नहीं।
अब मन में प्रश्न हैं
पर उत्तरों से डर लगता है।
क्योंकि जो सच है,
वो कहने में काँपता है।
क्या हम इतने थक चुके हैं
कि उठने से डरने लगे?
क्या हम इतने चुप हो गए हैं
कि मौन को ही धर्म मान लिया?
माँ कहती थी
“बेटा, पूजा करना मत छोड़ना,
वरना घर खाली हो जाता है।”
अब लगता है,
उसका मतलब सिर्फ मूर्ति नहीं था।
उसका मतलब था
भाव, भक्ति, भय और भरोसा।
अब जब बाहर की दुनिया
अंदर उतर आई है,
तो घर के मंदिर भी
सजावट बनकर रह गए हैं।
और हम
बस देखते रह गए,
जैसे कोई अपना
धीरे-धीरे हमसे दूर चला जाए।
अब भी समय है,
दीपक की लौ को थाम लो।
अब भी समय है,
कथा को फिर से जी लो।
अब भी समय है,
माँ की आँखों को पढ़ लो,
उसकी ख़ामोशी में जो शब्द हैं,
उन्हें बोल दो।
संस्कृति कोई आवाज़ नहीं,
जो माइक पर गूँजे,
वो एक साँस है
जो भीतर से निकलती है,
और पूरे घर को महका देती है।