हम गण हैं, पर तंत्र कहाँ?
हम गण हैं, पर तंत्र कहाँ?
हम सुबह की पहली बस में ठुंसे हुए
कच्ची नींद के बोझ तले दबे लोग हैं।
फ़ाइलें ढोते, ईएमआई चुकाते,
अपनी जगह बनाते
इस चौबीस घंटे के शहर में।
गण—यानी गिनती, यानी संख्या।
वोटिंग मशीन का सिर्फ़ एक बटन।
हम सिर्फ़ डेटा हैं, एक उपभोक्ता,
जिसकी ज़रूरतें ख़त्म नहीं होतीं, पर आवाज़
डिनर प्लेट की खनखनाहट में खो जाती है।
तंत्र—वो अदृश्य दीवारें
जो दिल्ली से लेकर गली तक बिछी हैं।
असरदार लोगों के बंद दरवाज़े,
जहाँ हवा भी इजाज़त लेकर जाती है।
तंत्र यानी लाल फ़ीता, सरकारी मेज़ की धूल,
और वह चिरस्थायी मुस्कान
जो वादा करती है, पर कभी पूरा नहीं करती।
हमने उन्हें मालिक नहीं, सेवक चुना था।
पर वे अब मूर्तियों की तरह स्थापित हैं
इतने ऊँचे कि हमें दिखाई भी नहीं देते।
सड़क पर टूटती गिट्टी लोकतंत्र की आवाज़ है।
अस्पताल के बाहर रोती माँ संविधान का सवाल।
बैंक की क़तार में थका किसान घोषणापत्र का मज़ाक।
हम आशावाद की गोली खाकर ज़िंदा हैं,
यह जानते हुए भी कि गोली नकली है।
हम गण हैं—शक्ति हैं, बहुमत हैं,
पर हमारी ऊर्जा को रोज़ पी लिया जाता है
एक फ़ॉर्म भरने में, एक जुगाड़ लगाने में,
एक अंधेरे से गुज़र जाने में।
तो सच क्या है?
हमारा होना केवल एक दुर्घटना है,
या यह नियति कि हम सिर्फ़ देखेंगे
और सहेंगे?
हाँ, हम गण हैं।
पर यह कैसा तंत्र है,
जहाँ सवाल पूछने की क़ीमत
रोज़गार से ज़्यादा है?
ज़िंदा हैं, पर आज़ाद कहाँ?
यह सवाल रोज़ रात सिरहाने रख कर सो जाते हैं।
शायद अगली सुबह…
हमें इसका जवाब मिल जाए।
© अमन कुमार होली