एक और नक्सलबाड़ी
अरे ओ धूमिल!
आज भी तुम्हारे सामने
वही खाली पेट है
मगर उसे ढँकने के लिए
अब कोई पतंग
नहीं फँसी है टेलीफ़ोन के खम्भे पर
बल्कि लाखों डिस्प्ले हैं, पाँच इंच के,
जिन पर डिजिटल भीख की ऐप्लिकेशन है।
नक्सलबाड़ी!
वह विद्रोह, वह ज़मीन का मसला
आज डेटा की परतों में दबा है।
वह खेत, जहाँ कभी किसान की मुट्ठी तनी थी,
अब किसी कॉर्पोरेट के नाम पर दर्ज है।
और तुम हो, वाई-फ़ाई के जंगल में,
अपनी नागरिकता का हक़
किसी ओटीपी में तलाशते हुए।
पहले भी हवा बुझ चुकी थी,
आज भी हवा सिर्फ़ अफ़वाहों से गर्म है।
सारे इश्तहार उतार लिए गए थे,
आज सारे इश्तहार तुम्हारे ही फ़ोन में हैं
फ़ालतू, भ्रामक,
हर दूसरे क्लिक पर एक नया ख़्वाब।
और हाँ,
सिर्फ़ हज्जाम की खुली हुई किस्मत में ही नहीं
अब तो हर ‘गिग वर्कर’ की बाइक के साइलेंसर में
एक उस्तुरा चमक रहा है
बेचैन, तीखा, जो पूछ रहा है:
‘बाबूजी! आपकी डिलीवरी का क्या?’
भंगी का वह झाड़ू हिल रहा था गंदगी के ख़िलाफ़,
आज सफाईकर्मी के हाथ में है मशीन,
मगर गंदगी वही पुरानी है
सिस्टम की, फ़ाइलों की,
अफ़सर की कुर्सी के पीछे चिपकी हुई।
नागरिकता का हक़
आज भी हलाल हो रहा है,
मगर अब ‘लाइव’ होता है,
लाखों आँखों के सामने,
बिना किसी शर्म, बिना किसी लाज के।
तुम्हारे पास वह कौन-सी सुरक्षित जगह है
जहाँ खड़े होकर तुम लड़ोगे?
ख़ाली पेट तो तुम्हारा पहला प्रजातंत्र था,
मगर यह दूसरा प्रजातंत्र
इतना चकाचौंध भरा है,
इतना शोर से भरा हुआ कि
तुम चीख़ना भी चाहो, तो
तुम्हारी आवाज़ किस
‘ट्रोल’ के शोर में गुम हो जाती है।
ख़बरदार!
उसने तुम्हारे परिवार को
नफ़रत के उस मुकाम पर ला खड़ा किया है
कि कल तुम्हारा सबसे छोटा लड़का भी
अपने मोबाइल की स्क्रीन से,
तुम्हारे पड़ोसी की पहचान को
अचानक काट सकता है,
क्या मैंने ग़लत कहा?
क्योंकि जब तुम्हारे पास सहमति नहीं,
सिर्फ़ एक ‘लाइक’ का विकल्प हो,
तो जान लो:
यह ‘सहमति’ नहीं है।
यह एक नक्सलबाड़ी है
वर्चुअल, ख़ूनी और
अब भी ज़िंदा।
©अमन कुमार होली