वही बी.एच.यू.
वही बी.एच.यू.
जहाँ महामना ने रोप दिया था
एक शिक्षा का वटवृक्ष,
जिसकी जड़ों में संस्कार था,
और छाँव में राष्ट्र।
अब वही बी.एच.यू.
नीयन लाइटों में नहाया
एक कैफ़े बन गया है।
यहाँ डिबेट नहीं होते,
डेट्स होती हैं।
लाइब्रेरी की सीढ़ियाँ
अब किताबों के पन्ने नहीं पलटतीं,
मोबाइल की स्क्रीनें चमकती हैं
किसी ‘रील’ की ताल पर।
मधुबन
जहाँ कभी तुलसी की पंक्तियाँ गूँजती थीं,
अब छुपे चुंबनों की सरसराहट है।
लड़के-लड़कियाँ
संवाद नहीं,
सिर्फ़ स्पर्श ढूँढते हैं।
कभी यह भूमि तपोभूमि थी,
अब फैशन शो का गलियारा है।
मालवीय की मूर्ति
अब भी खड़ी है
पर उसकी आँखों में प्रश्न है
क्या यही वह “विद्या का मंदिर” है
जिसकी मैंने कल्पना की थी?
और हाँ,
आज भी कुछ छात्र हैं
जो सूरज से पहले उठते हैं,
जो लाइब्रेरी में बैठकर
किसी नए भारत का सपना लिखते हैं।
पर उनकी आवाज़
भीड़ में खो जाती है
कानों में ईयरबड्स ठुंसे,
कंधों पर बैग नहीं,
रिश्तों के बोझ उठाए
लौंडे-लौंडियाँ
अस्सी की राह पर
इंस्टाग्राम की कहानी बनते जाते हैं।
वही बी.एच.यू.
अब भी वही है,
बस आत्मा बदल गई है।
मालवीय की प्रार्थना
अब भी गूँजती है।
पर जवाब में
कोई ‘लाइक’ नहीं आता।
© अमन कुमार होली