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6 Oct 2025 · 1 min read

#अकविता

#अकविता
■ थोड़ा समझो, थोड़ा बताओ।
■प्रणय प्रभात■
“अगर अपराध है-
हर समय मुस्कुराना,
हंसना और हंसाना।
प्यार करना और सिखाना,
रिश्ता बनाना और निभाना।
किसी की बुझी हुई आंखों में,
आस की चमक उपजाना।
किसी के सूखते होठों पर,
रसीली सी मुस्कान लाना।
बोझ से भारी माहौल को,
हल्का-फुल्का व सरस बनाना।
रह-रह कर जीवट दिखाना,
कहकहे और ठहाके लगाना।
दिमाग लगाए बिना मन में धीर धरना,
दिल से दिल की बात करना।
दुनिया से साझा जज़्बात करना,
हताशा के बीच आशा की बात करना।
बेगानों को अपना बनाना,
अपनों को और क़रीब लाना।
दु:ख में डूबे को सहज बनाना,
सहज को सरलता से रिझाना।
यदि हां, तो मैं अपराधी ही ठीक हूं।
आप किसी और से उम्मीद लगाइए,
कृपया मुझे बुद्धिजीवी ना बनाइए।।
ऐसा मतिमन्द बुद्धिजीवी,
जो न सुलझाए न फंसने दे।
जो न हंसे न हंसने दे।
हर वक्त रोए और रूलाए,
चेहरे पर हर घड़ी बारह बजाए।
चिंतित दिखे चिंता उपजाए,
सच छुपा कर झूठ बताए।
आज से ज़्यादा कल को रोए,
घड़ियाल जैसे आंखें भिगोए।
हर किसी की चापलूसी करे,
एक सच कहने में सौ बार डरे।
मैं इंसान हूं भगवन केवल इंसान।ई
तुझसे किसने कहा
कि मुझे देवता मान…?”
😊😊😊😊😊😊😊😊
■संपादक■
न्यूज़&व्यूज
(मध्यप्रदेश)

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