स्थिरप्रज्ञ
शरीर पर लगी चोट
अक्सर भर जाती है।
किंतु मन पर लगी चोट,
कभी नही भरती !
कुछ आघात…
इतने गहरे होते हैं,
कि समय का मरहम भी
उन पर असर नहीं करता !
तल्ख़ शब्दों के प्रहार
अक्सर होते हैं…
ज़हर बुझे तीर के समान !
मन की कड़वाहट को
शब्दों में डुबोकर,
जब कर दी जाए तीक्ष्ण वर्षा,
बिना यह सोचे कि
कि किसी का सुकोमल हृदय
इसे झेल भी सकेगा ?
बिना यह महसूस किए,
कि किसी का संवेदनशील मन
इसे सहने की क्षमता भी रखता है ?
भीड़ में कही गई कठोर बातें
एकांत में हज़ार बार
प्रतिध्वनित हो उठती हैं।
व्यक्ति चाहे कितना भी,
सामान्य दिखने की कोशिश करे,
पर हृदय के किसी कोने में
वह पीड़ा, वह दर्द
एक ठहराव के साथ,
चुपचाप घर कर लेती है,
जैसे मौन का कोई
अनचाहा साथी !
एक वक़्त के बाद यह दर्द
अपना सा महसूस होता है।
जैसे क़िस्मत ने,
यही लिखा ही था !
व्यक्ति शांत हो जाता है।
उसका सब्र,
मौन बन जाता है…
और व्यक्ति हो जाता है,
‘स्थिरप्रज्ञ’…!
कवयित्री: शालिनी राय
‘डिम्पल’…✍️
आज़मगढ़, उत्तर प्रदेश।