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1 Oct 2025 · 4 min read

#प्रसंगवश-

#प्रसंगवश-
(प्रसंग के साथ)
■ दाग़ ही नहीं “भय” भी अच्छा है।।
【प्रणय प्रभात】
“दाग़ अच्छे हैं” एक वाशिंग पावडर के विज्ञापन की टैग-लाइन है। आपने अब तक तमाम बार सुनी भी होगी। इसी से प्रेरित है मेरी आज की बात (रचना) का शीर्षक। मात्र एक शब्द के बदलाव के साथ। आगे बढ़ने से पहले याद दिला दूं कि इसका वास्ता 01 अक्टूबर से है। वो दिन, जिसे “अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस” के रूप में मनाया जाता रहा है।
कोई आपत्ति न होती, बशर्ते यह दिन हम परिवार, पड़ोस, समाज या क्षेत्र के बुजुर्गों के बीच, सब के साथ अपने या उनके घर पर मनाते। शर्म और विडम्बना की बात यह है कि अन्य दिवसों की तरह इस दिवस को भी एक आडम्बर बना कर रख दिया गया है। उन “वृद्धाश्रमों” को आयोजन का केंद्र बनाते हुए, जिनका वजूद ही एक “कलंक” जैसा है। भद्र मागनवीय समाज की ग़ैरत के गाल पर एक करारे तमाचे की तरह है।
आप मेरी बात से सहमत हों या न हों, लेकिन मैं कभी भी इस तरह की आश्रम व्यवस्था का पैरोकार नहीं रहा। फिर चाहे वो बुजुर्गों के लिए हों, महिलाओं के लिए या बच्चों के लिए। ख़ास कर तब, जबकि उनका अपना एक घर हो, घर वाले हों। वो भी हर तरह से समर्थ। किसी असहाय की मैं चर्चा नहीं कर रहा। उनके लिए इस तरह के आश्रम सामाजिक न्याय की भावना से सरोकार रखते हैं। जिनकी महत्ता को अमान्य नहीं किया जा सकता।
शर्म की बात यह है कि वाक़ई असहाय लोगों के लिए बना कर सामाजिक न्याय विभाग की मदों में सेंधमारी या फिर राजनीति के लिए चलाए जा रहे आश्रमों की मेहमानी बस उन्हें नसीब हो रही है, जो किसी न किसी परिवार का हिस्सा हैं। वो घर से प्रताड़ित हो कर आश्रम में आए या अपने स्वभाव व आदतों से समझौता न कर पाने के कारण, यह एक अलग विषय है। अभिप्राय इतना सा है कि जिनका घर है, वो आश्रम में क्यों? सवाल यह भी है कि हम उन्हें अपने हाल पर छोड़ कर चैन व सम्मान से कैसे जी सकते हैं? आज इसी सवाल के साथ अपनी बात आपके विचारार्थ रख रहा हूँ।
मेरा मत है कि मानवीय जीवन तमाम सारे भावों का समुच्चय है। इनमें अच्छे व बुरे दोनों तरह के भाव सम्मिलित हैं। इन्हीं में एक है “भय”, जिसे प्रायः बुरा
व नकात्मक माना जाता है। जबकि सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। मेरी सोच है कि भय की भी अपनी एक भूमिका है। जिसके लिए जीवन में एक मात्रा तक उसका होना आवश्यक है। जो इस बात को ग़लत मानें, उनके लिए यह छोटा सा प्रसंग पर्याप्त है। जो जीवन में थोड़े-बहुत “डर” की अनिवार्यता को रेखांकित करता है-
किसी शहर में एक बार एक प्रसिद्ध विद्वान् “ज्योतिषी का आगमन हुआ। माना जा रहा था कि उनकी वाणी में सरस्वती स्वयं विराजमान है। वे जो भी बताते हैं, सौ फ़ीसदी सच साबित होता है। इस बारे में जानकारी मिलने पर लाला जी भी अपना भाग्य व भविष्य जानने के लिए उक्त विद्वान के पास जा पहुँचे। निर्धारित 501 रुपए की दक्षिणा दे कर लाला जी ने अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ाते हुए ज्योतिषी से पूछा –
“महाराज! मेरी मृत्यु कब, कहॉ और किन परिस्थितियों में होगी?”
ज्योतिषी ने लाला जी की हस्त रेखाऐं देखीं। चेहरे और माथे को कुछ देर अपलक निहारते रहे। इसके बाद वे स्लेट पर कुछ अंक लिख कर जोड़ते–घटाते रहे और फिर गंभीर स्वर में बोले –
“जजमान! आपकी भाग्य रेखाएँ कहती है कि जितनी आयु आपके पिता को प्राप्त होगी, उतनी ही आयु आप भी पाएँगे। वहीं जिन परिस्थितियों में जिस जगह उनकी मृत्यु होगी, उसी स्थान पर और उसी तरह आपकी भी मृत्यु होगी।”
यह सुनते ही लाला जी की धड़कनें बढ़ गईं। वे बुरी तरह भयभीत हो उठे। उनका चेहरा पीला पड़ गया और शरीर पसीना छोड़ने लगा। वो वहां से तत्काल उठ कर चल पड़े।
लगभग एक घण्टे बाद लाला जी वृद्धाश्रम से अपने वृद्ध पिता को रिक्शे में बैठा कर घर की ओर लौटते दिखाई दिए। तब लगा कि जीवन में भय की भी कुछ न कुछ अहमियत तो है ही। यह प्रायः हमें ग़लत मार्ग पर चलने व ग़लत कार्य करने से रोकता है। भय को एक तरह से जीवन शैली व आचार, विचार और व्यवहार का सशक्त नियंत्रक भी माना जा सकता है।
इस तरह समझा जा सकता है कि “डर” कतई बुरा नहीं। बशर्ते वो हमें बुरा करने से रोकता हो। फिर चाहे वो भय धार्मिक हो, सामाजिक हो, पारिवारिक हो या वैधानिक। भय का अभाव किसी इंसान को मात्र निर्भय ही नहीं उद्दंड, अपराधी व निरंकुश भी बनाता है।
विशेष रूप से आज के युग में, जहां देश-काल और वातावरण में नकारात्मकता का प्रभाव सकारात्मकता से कई गुना अधिक है। आशा है, में जो कहना चाहता था, वो आप तक पहुंच गया होगा। जय राम जी की।।
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-सम्पादक-
●न्यूज़&व्यूज़●
(मध्य-प्रदेश)

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