#तेवरी- (देसी ग़ज़ल)
#तेवरी- (देसी ग़ज़ल)
■ उम्र अब वनवास लगने लग गई।।
【प्रणय प्रभात】
*इक पड़ोसन ख़ास लगने लग गई।
मंथरा सी सास लगने लग गई।।
*चार दिन पहले थी मीठी सीख जो।
व्यर्थ की बकवास लगने लग गई।।
*कल तलक थीं लाभदायक झिड़कियां।
अब निजी उपहास लगने लग गई।।
*आ गया ठहराव इक दिन और फिर।
झील को भी प्यास लगने लग गई।।
*राजसी लगती थी एकल ज़िंदगी।
उम्र अब वनवास लगने लग गई।।
*साथ होकर दूर थी जो हर घड़ी।
छिन गई तो पास लगने लग गई।।
*बेवफ़ा को ज़िंदगी की सांझ से।
कुछ वफ़ा की आस लगने लग गई।।
*जिस जगह कालीन बिछते थे कभी।
आज जँगली घास लगने लग गई।।
*मायने जिस रोज़ बदले सोच ने।
भूख भी उपवास लगने लगे गई।।
*उच्चता असहाय कोने में पड़ी।
नीचता बिंदास लगने लग गई।।
*यंत्रणा को देखिए अपनी कथा।
आज से संत्रास लगने लग गई।।
*कुछ सबक़ देता था इस दालान में।
साजिशों की क्लास लगने लग गई।।
-सम्पादक-
●न्यूज़&व्यूज़●
(मध्य-प्रदेश)
Hamid Balapuri