#विशेष_आलेख
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◆ साहित्य का अर्थ मात्र “तुकबंदी” आखिर कब तक…?
◆ विमर्श और विविध विधाएं गौण क्यों?
◆ संरक्षण व सहयोग का घोर अकाल
【प्रणय प्रभात】
एक समय तक साहित्य नगरी के रूप में चर्चित रहे चंबल अंचल सहित उसके तीसरे जिले श्योपुर में साहित्य का अभिप्राय मात्र तुकबंदी रह गया है। फिर चाहे वो गीत हो, कविता हो या मिलता-जुलता कुछ और। बात भले ही चौंकाने वाली हो, मगर सौलह आना सच है। आश्चर्य इस बात पर भी किया जाना चाहिए कि यहां छंद मुक्त व आधुनिक कविता को भी सहज स्वीकार नहीं किया जाता। जबकि इस नगरी को मान्यता प्रयोगवाद के अग्रणी महाकवि गजानन माधव मुक्तिबोध की जन्मस्थली के रूप में है।
जी हां, अज्ञेय कृत तार-सप्तक के वही अग्रगण्य कवि मुक्तिबोध, जिनकी कविता न कभी तुकांत पर आश्रित रही, ना ही विचार, विमर्श और सामयिक संदर्भो से विमुख। यह अलग बात है कि अलग सी धारणा और सृजन शैली के बाद भी सृजन व रचनाधर्मियों की व्यापकता ने नगरी को समूचे अंचल में पहचान व प्रतिष्ठा दिलाई। दशकों तक सक्रिय व समर्पित रचनाकारों ने मुक्तिबोध नगरी को साहित्य जगत में स्थान दिलाने का काम किया। ज़िले के गठन से पूर्व तक सृजन व आयोजन की एक अच्छी परम्परा नगरी को प्रतिष्ठा व पहचान दिलाती रही। इसके बाद लगभग एक सदी की सशक्त सृजन परंपरा उपेक्षा व असहयोग की भेंट चढ़ गई।
साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक गोष्ठियों का चलन समाप्त प्राय हो गया। रचनाकारों के बीच की स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा षड्यंत्रों के कुचक्र में बदल गई। विमर्श और विचार तो दूर पारस्परिक संवाद तथा संपर्क तक की भावना का भी लोप हो गया। जेबी संस्थाओं व किसी विशेष विचारधारा से प्रेरित संगठनों के नाम पर मानस में हिलोरें मारती दुरभि-संधि ने प्रेम, सद्भाव, एकता और समरसता के संवाहकों को पर्याय अथवा पूरक के स्थान पर धुर-प्रतिद्वंद्वी बना कर रख दिया। रही-सही कसर शासन-प्रशासन सहित क्षेत्रीय राजनीति की गोद में बैठे समाजों व संगठनों ने पूरी कर दी। जिन्होंने काव्य परम्परा के प्रति असहयोग, उदासींनता व अरुचि का परिचय दिया।
इसी तरह छोटी किंतु प्रभावी मंचीय आयोजनों की सतत् परंपरा भी समय के साथ अतीत की भूल-भुलैया में कहीं खो गई। माता सरस्वती के साधक भगवान गणपति के आशीष से वंचित क्या हुए, मां लक्ष्मी की चाह लिए कोरे स्वप्न संजोने की होड़ में कहीं के भी न रहे। होने को तो सृजक और सृजन कर्म अब भी है, वो भी सृजन धर्म के भाव से रहित। उपलब्धि के नाम पर पूर्णतः शून्यता के बीच अलग-थलग से। यही नहीं, स्थानीय हजारेश्वर मेले के पावन मंच को भी धूर्त व स्तरहीन राजनीति द्वारा आसपास के दलाल विदूषकों का अखाड़ा बना कर रख दिया गया है।
यह वही मंच है, जहां वर्ष में एक बार होने वाले अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के भाग्य और भविष्य का निर्धारण ठेका पद्धति से बिचौलियों की मदद से होता है। वो भी आकाओं व काकाओं की अनुशंसा पर। परिणामस्वरूप भारी-भरकम मद लुटा कर भी नगर निकाय रसज्ञ श्रोताओं को काली रात से अधिक कुछ नहीं दे पा रही। इसी का पूरा अनुसरण अन्य छोटे निकाय भी कर रहे हैं। मानपुर क्षेत्र के रामेश्वर मेले, बडौदा क्षेत्र के शिवरात्रि मेले और विजयपुर क्षेत्र के सिद्ध बाबा मेले का भी श्योपुर से अलग नहीं। इस तरह के कुछ आयोजन तो लुप्त ही हो चुके हैं। जिनमें स्वाधीनता व गणतंत्र पर्व सहित गणगौर व होली के आयोजन भी शामिल हैं।
अब क्षेत्रीय या आंचलिक स्तर के बाहरी मठाधीश मध्यस्थ बन कर प्रति वर्ष आयोजन का चीर-हरण निकायों के साथ मिल कर नियत करते हैं। देश के शीर्षस्थ वाणीपुत्रों की चरण-रज से दशकों तक कृतार्थ शिवनगरी का मंच छुटमैयों की फ़ूहड़, द्विअर्थी वाचालता, उत्तेजक संवाद और अनर्गल छींटाकशी से आहत प्रतीत होता है। वर्ष में गणतंत्र और स्वाधीनता दिवस की पूर्व संध्या नगर पालिका भवन में होने वाले आयोजन कथित जनसेवकों की इच्छा पर निर्भर हो चुके हैं। उनका स्थान होलिका दहन की रात हास्य के नाम पर होने वाली फूहड़ता ने ले लिया था, वो भी अब अनिश्चित है। दो दशक तक राष्ट्रभाषा हिन्दी दिवस समारोह के नाम पर चर्चाओं में रही सार्थक और उद्देश्यपरक आयोजन परंपरा आयोजको और संबद्ध संस्था के साथ कालातीत हो चुकी है। देश के विपक्षी दलों की तरह समय-समय पर गठित-विघठित संस्थाएं अस्तित्व में होकर भी लगभग अस्तित्वहीन हैं। गहन अंधकार में काले कोयले की भांति।
वैयक्तिक स्तर पर अपनी संपन्नता व जीवंतता का दम्भ भरने वाले मुट्ठी भर लोग अब भी अपने अपने मोर्चे पर सक्रिय हैं। जिन्हे अकर्मक व सकर्मक क्रिया के भेद से परिचित कराने का काम संभवतः समय ही करेगा। स्वाधीनता के समर काल से पूर्व सृजन साधना करने वाले लगभग दो से तीन दर्जन साहित्यकारों के सृजन को समय की दीमक चाट चुकी है। तमाम पृष्ठ अगली पीढ़ी की उपेक्षा के कारण नष्ट होने की कगार पर हैं। स्वतंत्रता के अमृत वर्ष तक नगरी के किसी एक साधक पर सत्ता-पोषित अकादमी या पीठ अपनी कृपादृष्टि से अमृत की एक बूंद नहीं टपका पाई है। महाकवि मुक्तिबोध की विरासत बरसों पहले मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की राजधानियों तक सिमट कर रह ही गई थी। जिसे विरासत का बलात अधिग्रहण भी कहा जा सकता है। श्योपुर को असीम संभावनाओं व प्रयासों के बाद भी इस विरासत का भाग तो दूर, दर्शन तक नहीं मिला है। वैचारिक और विषयवस्तु, विमर्श आधारित संवाद की परंपरा से वंचित और अनभिज्ञ नई पीढ़ी तुकबंदी और मंचीय नौटंकी को साहित्य संसार का सार मान कर ही बलिहार है। जिनके अपने पंख व उड़ान जैसे प्रयासों पर दिशा सहित वायु वेग के प्रति उनकी अपनी नासमझी धूल डालती आ रही है। मिथकों और वर्जनाओं के विरुद्ध वैचारिक शंखनाद करने की सामर्थ्य रखने वाले पाञ्चजन्यों को फूंक देकर गुंजाने वाले केशव की बस प्रतीक्षा की जा सकती थी, जो अब समाप्त हो गई है। ढपोरशंख कल भी अपनी मस्ती में मस्त थे, आज भी अपनी पीठ अपने हाथों खुजाने में पारंगत हो चुके हैं। जिन्हें सलाह, सुझाव या दिशा बोध से कोई सरोकार नहीं।
स्वाधीन भारत के अमृत काल के बाद भी उम्मीद का अधिकार एक भारतीय के रूप में समर्थ व सशक्त साधकों को है। इस नाते अपेक्षा की जा सकती है कि नगरी को साहित्य के क्षितिज पर मान दिलाने वाले अपने विशद सृजन को असामयिक काल कवलित होते देखने के अभिशाप से मुक्ति पाते देख सकेंगे। सत्ता नहीं, व्यवस्था परिवर्तन के बाद। शायद इसके बाद ही साहित्य नगरी एक बार फिर उस सृजन के पथ पर अग्रसर हो सकेगी, जो बहुकोणीय और बहुआयामी हो। जहां साहित्य का वंश केवल कविता पर आश्रित न होकर अन्यान्य विधाओं को पुष्पित, पल्लवित व सुरभित होते देख सके।
■ मुक्तिबोध की विरासत में भी रहे भागीदारी…..
तमाम निरर्थक आयोजनों की बाढ़ लाने वाली राज्य सरकार को चाहिए कि वह साहित्य व संस्कृति के प्रचार-प्रसार में क्रियाशील साहित्य परिषद, साहित्य अकादमी, ग्रंथ अकादमी, रामायण केंद्र व स्वराज संस्थान जैसी सत्ता पोषित संस्थाओं व संस्कृति विभाग को श्योपुर की उक्त महत्ता व उपादेयता को स्वीकारने व आगे बढाने के लिए निर्देशित करे। महाकवि मुक्तिबोध की जन्म जयंती अथवा पुण्यतिथि से जुड़ा एक बड़ा समागम उनकी जन्मस्थली श्योपुरः को भी दिया जाए। ताकि ना तो “मुक्तिबोध अंधेरे में” रहें। ना ही उनकी साहित्यिक विरासत में प्रतिनिधित्व चाहती श्योपुर नगरी में “चाँद का मुँह टेढ़ा” रहे। विडम्बना का एक उदाहरण बीते 11 सितम्बर का दिन भी माना जा सकता है। महाकवि मुक्तिबोध के महाप्रयाण के इस विशेष दिन को न सूबे ने याद रखा, न श्योपुरः ने। इन सबके पीछे कारण वही, जो इस आलेख का सार भी है और शीर्षक भी। वही कूप-मण्डूकता व आत्म-मुग्धता, जिसके पीछे स्वाध्याय व सुसंगत का अभाव है। कारण एक अच्छे पुस्तकालय की कमी भी है। जो दीर्घकाल तक श्योपुर कस्बे में था, किंतु आज ज़िला मुख्यालय पर नही है। नहीं भूला जाना चाहिए कि यह नगर साहित्य कोष को अमूल्य रत्न देने में कल भी समर्थ था, आज भी है और कल भी रहेगा।
■ पुरातन प्रतिष्ठा के पुनर्स्थापन के लिए….
★ संस्थागत स्तर पर आयोजित हों महानतम साहित्यकारों व महापुरुषों के जयंती व स्मृति पर्व।
★ सामयिक, सामाजिक व ज्वलंत विषयों पर विमर्श व निष्कर्ष के निमित्त आयोजित हों संगोष्ठियां।
★ नगर व ज़िले के दिवंगत व जीवंत सहित्यसेवियों के संग्रहों का प्रकाशन कराएं सम्बद्ध सरकारी उपक्रम।
★ ज़िला व नगर प्रशासन के स्तर पर दिया जाए क्षेत्र के साहित्यिक आयोजन को संरक्षण व वित्तीय सहयोग।
★ निर्धारित व पारम्परिक आयोजनों को बनाया जाए बाहरी बिचौलियों व ठेकेदारों के अवैध हस्तक्षेप से मुक्त।
★ शासकीय व राजकीय पर्वों में मिले साहित्यिक समागमों और रचनाकारों को पात्रतानुरूप महत्व व भागीदारी।
★ स्थानीय व आंचलिक लोक उत्सवों व क्षेत्रीय मेलों में पुनः आरंभ हो साहित्यिक आयोजनों की परंपरा।
विद्यार्थियों ब शोधार्थियों के लिए
यह साहसिक आलेखन एक छोटा किंतु उचित प्रयास है कुएं और पोखर के मेंढकों को कुएं व गड्ढों से सागर तक ले जाने का। चेतना नामक चिड़िया पर चोट लगे तो चीखें। मन करे तो अनर्गल प्रलाप करें। मेरा काम काल के कपाल पर एक और शिलालेख लगाना था, लगा दिया। इति शिवम्। इति शुभम्।।
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