काशी - दर्शन
एकाएक मोबाइल की घंटी बजी, मै हड़बड़ा कर उठ बैठा। उधर से फोन पर मेरे छोटे सुपुत्र रिक्की थे ।
” पापा दीनदयाल स्टेशन -मुगलसराय आ गया, इसके बाद वाराणसी कैंट आयेगा, उठ कर तैयार हो जाइये ”
” अच्छा अच्छा ” कहते हुए मैंने मोबाइल रखा और आँख मलते हुए उठ बैठा।
मै , विश्वभारती, शांतिनिकेतन पश्चिम बंगाल के अपने सफल प्रवास से वापस आ रहा था। इस यात्रा में मै अकेले था इसलिए रिक्की थोड़ी -थोड़ी देर बाद मुझे फोन करके मेरे वस्तुस्थिति से अवगत होते रहते थे। चूकिं वाराणसी में उस ट्रैन का स्टॉपेज मात्र पांच मिनट का ही था अतः उसे चिंता हो रही थी और डर भी था कि कहीं मै ट्रेन में सो न जाऊँ और ट्रेन आगे निकल जाये। इसलिये एहतियातन वह मुझे थोड़ी -थोड़ी में इस बात का स्मरण कराते रहते थे। खैर ट्रेन तीव्र गति से अपने अगले गंतव्य की ओर थी। मेरी सीट ऐसी कम्पार्टमेंट में ऊपर थी। मैंने रेलवे के बिस्तर को आदतन समेट कर कायदे से सहेजा, अपना बैग ठीक किया और आहिस्ता नीचे उतर कर नीचे की सीट पर बैठ कर अगले वाराणसी स्टेशन की प्रतीक्षा करने लगा।
करीब बीस मिनट बाद ट्रेन वाराणसी पहुँच चुकी थी और धीरे- धीरे यार्ड से प्लेटफार्म की ओर सरक रही थी। मै अपना बैग लेकर गेट पर पहुंच गया था और ट्रेन के रुकने की प्रतीक्षा करने लगा। पर यह क्या ? प्लेटफार्म पर बहुत ज्यादा गजब की भीड़ दिखाई देने लगी, शोरगुल आपने चरम पर था। ऐसी अराजकता की स्थिति में स्वयं को पाकर मुझे अब घबराहट होने लगी कि क्या बात है ? फिर भी मैंने धैर्य के साथ एक गहरी साँस लेकर आपने को ऊर्जावान बनाया। जैसे ही ट्रेन रुकी छात्रों का एक विशाल झुण्ड डिब्बे में घुसने की अनापेक्षित व अनाधिकार चेष्टा करने लगा।
” अरे भाई थोड़ा रुक तो जाओ हम सबको उतरने तो दो, फिर चढ़ जाना आराम से ” मैंने उन्हें रोकते हुए कहा। मेरे पीछे एक वृद्ध दंपत्ति भी थे ,जो कशी विश्वनाथ के दर्शन हेतु वाराणसी आये हुए थे। मुझे लगा कि आखिर ये कैसे उतरेंगे। पर शायद उन्हें भी ट्रेन के स्टॉपेज के बारे में पता था। शायद उस दिन वाराणसी में कोई सामूहिक परीक्षा थी।
” अबे चढ़ जल्दी से सब मिला , नाही त ट्रेन छूट जाई ” मेरी बात को अनसुना करते हुए वे सब मुझे धकेल कर घुसने का प्रयास करने लगे। मेरी बात का उन सब पर कोई असर ही नही था। मुझे लगा कि मै अब गिरा तब गिरा। वे एक-एक कर जबरी घुसते ही जा रहे थे। सामने स्टेशन की घड़ी आपने रफ़्तार में चल रही थी जिसके हिसाब से बस एक मिनट और शेष था। मुझे कोई रास्ता ही नही सूझ रहा था कि करे तो क्या करे ? वे दोनों दंपती मेरे पीछे मेरी ओट लिए अपने को सुरक्षित किये हुए थे और शायद यही सोच रहे थे कि मै जैसे ही उतरूगा , वे भी मेरा पीछा करते हुए सकुशल उतर ही जायेंगे। पर यहाँ तो मेरे ही उतरने के लाले पड़े थे। इसी प्रयास में मेरी एक हथेली भी छील गयी।
” बेटा थोड़ा रुक जाओ हमें उतर जाने दो , देखो मेरे पीछे कुछ वृद्ध भी हैं उन्हें भी उतरना हैं यही और गाड़ी छूट जायेगी तो बहुत परेशानी हो जायेगी ”
” हमलोगो की भी गाड़ी छूट जायेगी ”
” टिकट लिए हो आप सब ”
” आप टीटी हैं ? ” कुल मिलकर मेरे निवेदन का उन पर कोई असर नही पड़ रहा था।
अंत में समय शेष न देखकर और कोई अन्य उपाय पाकर , साहस करते हुए मैंने अपने बैग को स्टेशन पर उन सबके के ऊपर से उछाल कर फेका और तुरंत स्वयं उन सबके ऊपर ही कूद पड़ा और गिरते पड़ते किसी तरह सफल लैंडिग करने में कामयाब तो हुआ पर इस साहसिक प्रयास में मेरी हथेली एक- दो जगह से और छिल गयी। तभी अचानक ट्रेन ने सिटी दी और अपने अगले गंतव्य की ओर चल पड़ी। मैंने गिरते – गिरते उस दम्पति को देखने का प्रयास किया कि उनका क्या हुआ ? सत्य तो यही है कि वे तो मेरी तरह निश्चित ही उतर नही पाये होंगे , फिर क्या हुआ होगा उनका ? , सोच मैंने बैग उठाया और भारी मन से प्लेटफार्म की ओर चल दिया।
आगे गेट पर देखा तो एक वृद्ध व्यक्ति , जिसका चालू टिकट नही मिल पा रहा था , शायद जेब से गिर गया या चोरी हो गया जैसा कि अपना टिकट खोजते हुए वह टीटी को बता रहा था , टीटी महोदय के हत्थे चढ़ गया था । जो उसकी एक अबूझ मंशा से क्लास ले रहे थे –
” मान्यवर इतने जो लडके यहाँ तांडव कर रहे है , इन सबका टिकट देखा क्या आपने ?” मैंने थोड़ा नाराजगी से पूछा।
” भाई साहब वह मेरा काम नही है ” बड़े ही बेपरवाही से उसने जवाब दिया। जैसे उसे कोई असर ही नही था। उसने एक तरफ से इस अराजकता की अनचाही स्थिति से किनारा ही कर लिया।
” फिर किसका है ” मैंने फिर पूछा और आपकी आरपीएफ कहाँ हैं।
” मुझे नही पता ” कहते हुए वह उस वृद्ध को लेकर किनारे चला गया। मंशा जग-जाहिर थी।
सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो मुझे यह दिखी कि रेलवे पुलिस का कोई भी जवान वहां मौजूद नही था या होगा भी तो मुझे दिखाई नही दे रहा था , जो इस स्थिति को संभाले कि चलो ये देश के कर्णधार जो आगे चलकर देश को संभालेंगे वे बिना टिकट ही सही पर सभ्य लोगो को उतरने तो दे फिर लाइन लगाकर एक -एक को चढ़ाते जाते । वस्तुतः ऐसी स्थिति में मेरा मानना था कि प्रशासन से बात कर रेल के रुकने के समय को भी विशेष काल और परिस्थितियों में बढ़ाया जाना चाहिए। थोड़ा लेट ही न होगा पर अनापेक्षित कैजुल्टी से तो बचा जा सकता हैं। पर इस संज्ञा -शून्य, असंवेदनशील और अमानवीय व्यवस्था से क्या ही उम्मीद की जा सकती हैं ? हाँ हम गाँधी को कोसते हुए तेजी से विकास की राह पर चल पड़े हैं। इस घटना , ऐसी व्यवस्था और ऐसे कर्णधारों को देख कर इस सत्यता को आकलन हो ही सकता हैं।
तब तक मै बाहर आ चुका था और एक ऑटो कर अपने गंतव्य की ओर चल दिया। रास्ते भर मुझे उस वृद्ध दम्पति की चिंता सता रही थी कि पता नही वे उतरे कि नही, नही उतरे तो फिर क्या हुआ उनका ? कहीं उस भीड़ में कुचल तो नही गए होंगे न। ना – ना भगवन न ही उतरे होंगे तभी अच्छा होगा। फिर उनको अपनी सीट भी तो नही मिलेगी। सब सीट पर तो ये हुड़दंगियों ने कब्ज़ा कर रखा होगा। फिर यह सोच कर संतोष किया कि चलो कुछ दयालु होंगे , उनको बिठा ही लेंगे। पर उनके काशी दर्शन का क्या हुआ या क्या होगा ? कितनी उम्मीद लेकर वे आये होंगे। क्या सोचेंगे वे हमारे बारे में साथ ही इस अराजकता और दुर्व्यवस्था के बारे में जहाँ न कोई कानून न कोई कानून का राज लक्षित था , कुल मिलकर एक भारी मन लिए आहत से परिपूर्ण मै घर के नजदीक पहुंच रहा था ।
निर्मेष