दोस्ती के उस पार
पहले हँसी में बातें होती थीं, आपकी और मेरी,
तेरी हर बात पर हँसना, मेरी आदत बन गई थी।
जब तू चुप हो जाती, तो दिल बेचैन सा हो उठता,
पर तुझे देखकर, सब कुछ फिर से ठीक हो जाता।
तू भी तो कुछ ऐसा ही करती थी,
हर बात मेरी, ध्यान से सुना करती थी।
कभी-कभी बेवजह के झगड़े होते थे हमारे बीच,
फिर भी मेरी आपकी हर सुबह “गुड मॉर्निंग” से,
और हर रात का अंत, एक मीठे “गुडनाइट” पर होता था।
धीरे-धीरे लफ़्ज़ों की ज़रूरत कम होने लगी,
आपकी खूबसूरत निगाहें अब सब कुछ कहने लगीं।
तेरे “मैं ठीक हूँ” के पीछे की जो ख़ामोशी थी आपकी,
वो अब मुझसे छुपी नहीं रहती थी मैं पढ़ने लगा था तुझे।
तेरी वो नज़रे, जो अक्सर ठहर जाया करती थीं,
जब मैं कुछ कहता आपको अपने दिल से,
और फिर तू शरमा कर नज़रें चुरा लेती थी,
उन निगाहों की वो अनकही खामोशी,
एक अनकहा हम दोनों के बीच इकरार भी था।
शायद, हम दोनों ने वही प्यार महसूस किया था।
मैं बहुत बार कुछ कहने से डरता रहा,
कहीं मेरा सच, तुझे मुझसे दूर न कर दे।
मन ही मन मैं खुद से पूछता रहता था,
“अगर तू बदल गई तो, मैं खुद को कैसे संभाल पाऊँगा?”
पर दिल की बात कब तक छुप सकती है?
एक दिन, मेरी चुप लफ़्ज़ बन ही गई।
और तुम मुझसे, बस मुस्कुरा कर बोली,
“मैं भी वही महसूस करती हूँ, बहुत पहले से”
और उस दिन,
दोस्ती, इश्क़ की सबसे सच्ची शुरुआत बन गई।