चुनौती से सफलता तक...
हिंदी का विषय उसे तनिक न भाता,
पर मेरी कहानियों में उसे बड़ा आनंद आता।
पढ़ना उसकी मजबूरी थी, किंतु
लिखने में उसे न जरा-सी भी रुचि थी।
मेरे लिए वह एक कठिन चुनौती थी,
कुछ दिनों में जो उसकी नैया पार लगानी थी।
पहले जोड़ा मैंने उसे अपनी कहानियों से,
फिर धीरे-धीरे दबाव डाला लिखने के सफ़र से।
जब दिखा रास्ता उसकी भावनाओं तक पहुँचने का,
तब शुरू हुआ असली सफ़र उसे पढ़ाने का।
सब दिन एक से न होते थे उसके हालात—
कभी पढ़ता मन लगाकर, तो कभी रह जाता झुंझलाकर।
तो कभी ताकता रहता दीवारों की ओर,
न जाने किस रहस्य में रखता था
वो खुद को उलझाकर।
वक़्त भी कम था और अनुभव भी नया,
दो महीनों का ही महज यह सफ़र रहा।
उसे पढ़ाना भी था और धीरे-धीरे,
पढ़ने की आदत भी दिलानी थी।
उसे बोरियत न हो, इसलिए हर दिन,
एक नई कहानी भी सुनानी थी।
कुल मिलाकर बाईस पाठ थे उसके,
भरे थे एक से बढ़कर एक गूढ़ रहस्यों से।
एक-एक करके सबको उतारना था उसके मन-मस्तिष्क में,
और डुबोना था उसे उन नैतिक मूल्यों के रस में ।
विचार न था कि उत्तीर्ण हो वह अच्छे अंकों से,
पर लालसा थी कि भर ले अपने जीवन को वह
उन सभी नए अनुभवों से।
जैसे-जैसे एक-एक पाठ समाप्त होता जाता,
उसके व्यवहार में परिवर्तन नज़र आता।
यही तो है हम शिक्षकों का दायित्व—
कि शिक्षा केवल अंकों तक न सिमट जाए,
बल्कि मूल्यों संग बच्चों के जीवन में घुल जाए।
दोनों गतिविधियाँ चलानी थीं साथ-साथ,
अन्यथा न मिलता उसे ज्ञान, न बनती कोई बात।
बीते लम्हों को भुलाकर
वर्तमान से उसे जोड़ना था,
ताकि बना सके वह अपना बेहतर भविष्य
और कर सके अपने माता-पिता को गौरवान्वित।
बोलने में जरा भी रुचि न थी उसकी,
पर सुनता था हर एक बात बड़े ही ध्यान से।
धीरे-धीरे मैं भी बांधने लगी थी,
उसे अपनी ममता की डोर से।
उसकी ज़िद के आगे झुकना पड़ता था मुझे भी,
वह जो पाठ चुनता वही पढ़ाना होता,
तभी उसका ध्यान भी पढ़ाई में लग पाता।
कभी-कभी ऐसा लगता जैसे
हम दोनों बंधे थे एक डोर से,
उसे मना कर पढ़ने बैठाती और
न जाने पढ़ाकर कौन सा अद्भुत सुख पाती।
और आज—
वह उत्तीर्ण है, आगे बढ़ चला,
जीवन के पथ पर कदम रख चला।
आशीष मेरा—गति उसकी न रुके,
हर मंज़िल पर सफलता उसके कदम चूमे।