जब होली खेलने के चक्कर में जान पर बन आई
जब होली खेलने के चक्कर में जान पर बन आई
बात वर्ष 1959 की है। हमारी उम्र पांच वर्ष से कुछ अधिक थी। होली के बाद दुल्हैंडी का दिन था। सुबह लगभग 8 बजे हमारे पिताजी ने हमें तैयार किया, स्वयं झकाझक सफेद कुर्ता पायजामा पहना। बाल्टी में रंग घोला गया। उन दिनों बांस की पिचकारियां ही बाजार में मिलती थीं, यद्यपि पीतल की पिचकारियां भी होती थीं, लेकिन वह मंहगी होती थीं। बांस की पिचकारी में अंदर जो डंडी होती थी उस पर नीचे की ओर कपड़ा लपेट कर मोटा किया जाता था और वह वाशर का काम करता था। पिताजी ने पिचकारी तैयार करके हमें दे दी और सामने खड़े होकर कहा रंग छोड़ो। हमने भी पिचकारी में रंग भरकर उनके कुर्ते पायजामे पर बढ़िया चित्रकारी कर दी। इस प्रकार पिचकारी की टैस्टिंग पूरी हो गयी। इसके बाद हम पिताजी के साथ पिचकारी और रंग की बाल्टी लेकर छत पर चले गये ताकि गली में आने जाने वालों पर रंग डाल सकें।
हमारे मकान में बीच में बड़ा सा आंगन था जिसके तीन ओर छज्जा था जिस पर कोई रेलिंग नही थी। हम सभी अक्सर छज्जे पर भाग दौड़ करते रहते थे, जो सामान्य बात थी। छज्जे के बाद बैठक की मुंडेर पर से हम गली वालों पर रंग डाल रहे थे।
तभी हमने देखा कि हमारे एक पड़ोसी जिन्हें हम चाचाजी कहते थे, नहाकर झकाझक सफेद बनियान व अंडरवियर पहने अपनी छत पर प्रकट हुए। हमारे मन में यकायक उन्हें रंगने का विचार आया, और हम तुरंत छज्जे पर होते हुए पिचकारी भर कर फिर वापस मुड़े और चाचाजी को रंगने के लिये फिर छज्जे पर भागे। उधर चाचाजी भी हमारा प्रयोजन समझ चुके थे, अत: वह भी हमारी ओर ही आ चुके थे। जैसे ही हम पिचकारी लेकर उनकी ओर मुड़े तो देखा वह तो बिल्कुल हमारे पास आ चुके थे। उन्होंने पहले तो जोर से बोलकर मना किया, फिर हाथ बढ़ाकर हमारी पिचकारी छीननी चाही। हम एक झटके में पीछे को मुड़कर भागे कि हमारा पॉंव झज्जे के बाहर पड़ा और हम सर के बल नीचे गिर गये। चाचाजी ने पकड़ने की कोशिश भी की लेकिन उनका प्रयास व्यर्थ रहा।
ये तो पता नहीं कि हम कितनी देर अचेत रहे, लेकिन जब चेतना लौटी तो हमें आंगन में जमीन पर लिटाया हुआ था। हमारे चारों तरफ पूरे मुहल्ले के लोग इकट्ठा थे, लिपे पुते और रंगे हुए। हमारे आंखें खोलते ही सब खुश होकर चिल्लाने लगे होश आ गया, होश आ गया। कोई बोला अरे इसे डाक्टर के पास ले जाओ। हमारे पिताजी और चाचाजी हमें लेकर रिक्शा से मंडी बांस में डाक्टर कोठीवाल के गये। डाक्टर साहब का दरवाजा खटखटाया गया। वह थोड़ी देर बाद आये और हमारी पूरी जांच की। गनीमत थी कि कोई हड्डी पसली नहीं टूटी थी। माथे पर बांयी और एक गूमड़ अवश्य निकल आया था। दांते हाथ में भी दर्द हो रहा था। दरअसल नीचे गिरते समय हमारा हाथ पहले जमीन पर आया और हमारे हाथ के ऊपर हमारा सिर आया जिस कारण सिर में चोट नहीं लगी। दाहिना हाथ यद्यपि एक दो महीने तक दर्द करता रहा।
इस घटना के बाद हम होली खेलने से सदैव बचते हैं, और खेलते भी हैं तो सहजता के साथ खेलते हैं। जबरदस्ती किसी को रंग नहीं लगाते, क्योंकि जबरन रंग लगाने के प्रयास का परिणाम हमें अच्छी तरह से समझ आ गया था, जब रंग लगाने के चक्कर में जान पर ही बन आई थी।
श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।