इल्ज़ाम का बोझ
राजीव, एक सीधा-सादा इंसान, नौकरी करता और बूढ़े माँ-बाप का सहारा था। शादी के बाद उसने सोचा था—“अब जीवन में खुशियाँ दोगुनी होंगी।”
पर किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था।
पत्नी नेहा की सोच बदल चुकी थी। उसे पता था कि कानून उसके पक्ष में खड़ा है। गुस्से या मनमानी में वह अक्सर कह देती—
“देख लेना, अगर तुमने मेरी नहीं मानी तो दहेज प्रताड़ना का केस ठोक दूँगी।”
राजीव हँसकर टाल देता, पर एक दिन झगड़ा इतना बढ़ा कि नेहा ने सचमुच पुलिस बुला ली।
शिकायत लिखी—“पति और ससुराल वाले दहेज माँगते हैं, मारते-पीटते हैं।”
राजीव और उसके बूढ़े माँ-बाप को बिना सबूत थाने ले जाया गया।
गाँव-गली के लोग उँगली उठाने लगे—
“अरे, ये तो शरीफ़ लगते थे, असल में तो लालची निकले।”
राजीव की माँ रोते-रोते बेहोश हो गई। पिता शर्म से बाहर निकलना छोड़ बैठे।
राजीव बार-बार कहता—“हमने कभी दहेज नहीं माँगा, सब झूठ है।”
पर उसकी आवाज़, सच होते हुए भी, क़ानून की किताबों में दब गई।
महीनों केस चला। राजीव की नौकरी छूट गई, माँ की तबीयत बिगड़ गई। नेहा ने अदालत में कहा—
“इतने रुपये दे दो, मैं केस वापस ले लूँगी।”
राजीव जानता था, वो बेगुनाह है। पर बेगुनाही साबित करने से पहले ही उसकी दुनिया उजड़ चुकी थी।
आख़िरकार, अदालत ने उसे बरी कर दिया।
पर जब वो घर लौटा तो माँ अब इस दुनिया में नहीं थीं।
और पिता की आँखों में बस यही सवाल था—
“बेटा, सच बोलने के बाद भी हमें ये सज़ा क्यों मिली?”
राजीव की आँखों से आँसू बह निकले। उसने आसमान की तरफ़ देखा और सोचा—
“कानून अगर सुरक्षा है तो हथियार क्यों बन जाता है?
और न्याय अगर सच्चाई है तो बेगुनाह को अपने ही देश में मुज़रिम क्यों बनना पड़ता है?”