ये रिश्ते
ये कैसे रिश्ते हैं जनाब, कोई फ़साना तो कहे,
हम ही रुस्वा, हम ही गुनहगार, ज़माना तो कहे।
नक़्श-ए-क़दम पे औरों के जो बढ़ते चले गए,
ख़र्चा हमारा था, मगर ताना हमें ही दे गए।
हमारी ख़ामोशी को उन्होंने कायर समझ लिया,
लब खोले तो इल्ज़ाम का पैमाना दे गए।
वफ़ा का सिला उन्होंने जफ़ा से ही अदा किया,
दिल तोड़कर भी एहसान का तराना दे गए।
कुमार अब क्या शिकवा करें, तक़दीर से भी डरते हैं,
अपनों के नक़ाब ओढ़े लोग, ज़ख़्म हमें ही देते हैं।