रोटी
रोटी का टुकड़ा
कभी भूख का प्रतीक है
कभी चुनाव का मुद्दा।
नेताओं की सभाओं में
यह सिर्फ़ एक नारा है
“हर थाली में रोटी, हर हाथ में काम”
पर ग़रीब की थाली में
आज भी सिर्फ़ इंतज़ार पकता है।
राजधानी के भाषणों में
रोटी आँकड़ों में सिमट जाती है,
लेकिन गाँव की झोपड़ियों में
यह भूख के आँसुओं से भीगी रहती है।
किसान खेतों में बोता है
धरती और सपनों को साथ-साथ।
उसके पसीने से गीली मिट्टी
बालियों में बदलती है,
पर जब फसल झूमती है
राजनीति उस पर अपनी दराँती चला देती है।
कभी समर्थन मूल्य का खेल,
कभी कर्ज़ माफी का झूठा वादा,
कभी मुफ्त बाँटने का नारा
रोटी का हर टुकड़ा
सत्ता की भूख में गिरवी रखा जाता है।
पिता अपने हिस्से का निवाला छोड़ देता है
माँ आधी रात तक आटा गूँधती है
ताकि बच्चों की थाली खाली न रहे।
पर वही रोटी
संसद में सौदों की मेज़ पर रखी रहती है।
रोटी
भूख और राजनीति के बीच की सबसे बड़ी सच्चाई,
और किसान
उस सच्चाई का सबसे गहरा घाव।
रोटी का टुकड़ा
कभी जीवन है,
कभी जंजाल।
पर हर हाल में
किसान का दर्द
उसमें हमेशा गूँथा हुआ है।