चेहरा उसका फूल-सा है पर नीयत उसकी ख़ार की है
ग़ज़ल
चेहरा उसका फूल-सा है पर नीयत उसकी ख़ार की है
प्यार को अब क्या फिर से ज़रुरत ऐसे इश्तिहार की है
नाम मुहब्बत सुनके ही जो मक्खी से मंडराते है
उन्हें बताओ पीली-पीली हर शय इक दरबार की है
शहज़ादे कितने जा पहुंचें पैदल गलियों कूचों में
लोगों पर तस्वीर उन्हीके रथ की, घर की, कार की है
बुद्धिजीवियों ने सालों में मौसम ऐसा बना लिया
एक ख़लिश-सी उनके अंदर बिकने की दरकार की है
नाम-इनाम की कैसी-कैसी हवस है दानिशमंदों में
अच्छा तुम्ही बताओ यारो ये कितने प्रकार की है
-संजय ग्रोवर
( तस्वीर: संजय ग्रोवर )
( ख़ार=कांटा, दरकार=आवश्यकता, ख़लिश=कसक, दानिशमंद=बुद्धिमान )